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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मैंने कहा– हाँ, ख़ूब याद है। वह कारपोरल था मैंने उसकी शिकायत कर दी थी और उसका कोर्टमार्शल हुआ था। व कारपोरल के पद से गिर कर मामूली सिपाही बना दिया गया था। हाँ, उसका नाम भी याद आ गया क्रिप या क्रुप…

कप्तान नाक्स ने बात काटते हुए कहा– किरपिन। उसकी और मेरी सूरत में आपको कुछ मेल दिखाई पड़ता है? मैं ही वह किरपिन हूँ। मेरा नाम सी, नाक्स है, किरपिन नाक्स। जिस तरह उन दिनों आपको लोग श्रीनाथ कहते थे उसी तरह मुझे भी किरपिन कहा करते थे।

अब जो मैंने गौर से नाक्स की तरफ़ देखा तो पहचान गया। बेशक वह किरपिन ही था। मैं आश्चर्य से उसकी ओर ताकने लगा। लुईसा से उसका क्या सम्बन्ध हो सकता है, यह मेरी समझ में उस वक़्त भी न आया।

कप्तान नाक्स बोले– आज मुझे सारी कहानी कहनी पड़ेगी। लेफ्टिनेण्ट चौधरी, तुम्हारी वजह से जब मैं कारपोरल से मामूली सिपाही बनाया गया और जिल्लत भी कुछ कम न हुई तो मेरे दिल में ईर्ष्या और प्रतिशोध की लपटें– सी उठने लगीं। मैं हमेशा इसी फिक्र में रहता था कि किस तरह तुम्हें जलील करूँ किस तरह अपनी जिल्लत का बदला लूँ। मैं तुम्हारी एक-एक हरकत को एक-एक बात को ऐब ढूंढने वाली नज़रों से देखा करता था। इन दस-बारह सालों में तुम्हारी सूरत बहुत कुछ बदल गई और मेरी निगाहों में भी कुछ फर्क आ गया है जिसके कारण मैं तुम्हें पहचान न सका लेकिन उस वक़्त तुम्हारी सूरत हमेशा मेरी आँखों के सामने रहती थी। उस वक़्त मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी तमन्ना यही थी कि किसी तरह तुम्हें भी नीचे गिराऊँ। अगर मुझे मौक़ा मिलता तो शायद मैं तुम्हारी जान लेने से भी बाज न आता।

कप्तान नाक्स फिर ख़ामोश हो गये। मैं और डाक्टर चन्द्रसिंह टकटकी लगाये कप्तान नाक्स की तरफ़ देख रहे थे।

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