कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
स्वाँग
राजपूत ख़ानदान में पैदा हो जाने ही से कोई सूरमा नहीं हो जाता और न नाम के पीछे ‘सिंह’ की दुम लगा देने ही से बहादुरी आती है। गजेन्द्र सिंह के पुरखे किस ज़माने में राजपूत थे इसमें सन्देह की गुंजाइश नहीं। लेकिन इधर तीन पुश्तों से तो नाम के सिवा उनमें राजपूती के कोई लक्षण न थे। गजेन्द्र सिंह के दादा वकील थे और जिरह या बहस में कभी-कभी राजपूती का प्रदर्शन कर जाते थे। बाप ने कपड़े की दुकान खोलकर इस प्रदर्शन की भी गुंजाइश न रखी। और गजेन्द्र सिंह ने तो लूटिया ही डूबो दी। डील-डौल में भी फर्क आता गया। भूपेन्द्र सिंह का सीना लम्बा-चौड़ा था नरेन्द्र सिंह का पेट लम्बा-चौड़ा था, लेकिन गजेन्द्र सिंह का कुछ भी लम्बा-चौड़ा न था। वह हलके-फुलके, गोरे-चिट्टे, ऐनकबाज, नाजुक बदन, फैशनेबुल बाबू थे। उन्हें पढ़ने-लिखने से दिलचस्पी थी।
मगर राजपूत कैसा ही हो उसकी शादी तो राजपूत खानदान ही में होगी। गजेन्द्र सिंह की शादी जिस खानदान में हुई थी, उस खानदान में राजपूती जौहर बिलकुल फना न हुआ था। उनके ससुर पेंशनर सूबेदार थे। साले शिकारी और कुश्तीबाज। शादी हुए दो साल हो गये थे, लेकिन अभी तक एक बार भी ससुराल न आ सका। इम्तहानों से फुरसत ही न मिलती थी। लेकिन अब पढ़ाई खतम हो चुकी थी, नौकरी की तलाश थी। इसलिये अबकी होली के मौके पर ससुराल से बुलावा आया तो उसने कोई हीला-हुज्जत न की। सूबेदार की बड़े-बड़े अफसरों से जान-पहचान थी, फ़ौजी अफसरों की हुक्काम कितनी कद्र और कितनी इज़्ज़त करते हैं, यह उसे ख़ूब मालूम था। समझा, मुमकिन है, सूबेदार साहब की सिफारिश से नायब तहसीलदारी में नामजद हो जाय। इधर श्यामदुलारी से भी साल-भर से मुलाकात नहीं हुई थी। एक निशाने से दो शिकार हो रहे थे। नया रेशमी कोट बनवाया और होली के एक दिन पहले ससुराल जा पहुँचा। अपने गराण्डील सालों के सामने बच्चा-सा मालूम होता था।
तीसरे पहर का वक़्त था, गजेन्द्र सिंह अपने सालों से विद्यार्थी काल के कारनामें बयान कर रहा था। फुटबाल में किस तरह एक देव जैसे लम्बे-तड़ंगे गोरे को पटखनी दी, हाकी मैंच में किस तरह अकेले गोल कर लिया, कि इतने में सूबेदार साहब देव की तरह आकर खड़े हो गये और बड़े लड़के से बोले– अरे सुनों, तुम यहाँ बैठे क्या कर रहे हो। बाबू जी शहर से आये है, इन्हें ले जाकर ज़रा जंगल की सैर करा लाओ। कुछ शिकार-विकार खिलाओ। यहाँ ठेठर-वेठर तो है नहीं, इनका जी घबराता होगा। वक़्त भी अच्छा है, शाम तक लौट आओगे।
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