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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


शिकार का नाम सुनते ही गजेन्द्र सिंह की नानी मर गयी। बेचारे ने उम्र-भर कभी शिकार न खेला था। यह देहाती उजड़ लौंडे उसे न जाने कहाँ-कहाँ दौड़ायेगे, कहीं किसी जानवर का सामन हो गया तो कहीं के न रहे। कौन जाने हिरन ही चोट कर बैठे। हिरन भी तो भागने की राह न पाकर कभी-कभी पलट पड़ता है। कहीं भेड़िया निकल आये तो काम ही तमाम कर दे। बोले– मेरा तो इस वक़्त शिकार खेलने को जी नहीं चाहता, बहुत थक गया हूँ।

सूबेदार साहब ने फ़रमाया– तुम घोड़े पर सवार हो लेना। यही तो देहात की बहार है। चुन्नू, जाकर बन्दूक ला, मैं भी चलूँगा। कई दिन से बाहर नहीं निकला। मेरा राइफल भी लेते आना।

चुन्नू और मुन्नू खुश-खुश बन्दूक लेने दौड़े, इधर गजेन्द्र की जान सूखने लगी। पछता रहा था कि नाहक इन लौडों के साथ गप-शप करने लगा। जानता कि यह बला सिर पर आने वाली है, तो आते ही फौरन बीमार बनकर चारपाई पर पड़ रहता। अब तो कोई हीला भी नहीं कर सकता। सबसे बड़ी मुसीबत घोड़े की सवारी। देहाती घोड़े यों ही थान पर बंधे-बंधे टर्रे हो जाते हैं और आसन का कच्चा सवार देखकर तो वह और भी शेखियां करने लगते हैं। कहीं अलफ हो गया या मुझे लेकर किसी नाले की तरफ़ बेतहाशा भागा तो ख़ैरियत नहीं।

दोनों साले बन्दूक़ें लेकर आ पहुँचे। घोड़ा भी खिंचकर आ गया। सूबेदार साहब शिकारी कपड़े पहन कर तैयार हो गये। अब गजेन्द्र के लिए कोई हीला न रहा। उसने घोड़े की तरफ़ कनखियों से देखा– बार-बार ज़मीन पर पैर पटकता था, हिनहिनाता था, उठी हुई गर्दन, लाला आँखें, कनौतियाँ खड़ी, बोटी-बोटी फड़क रही थी। उसकी तरफ़ देखते हुए डर लगता था। गजेन्द्र दिल में सहम उठा मगर बहादुरी दिखाने के लिए घोड़े के पास जाकर उसके गर्दन पर इस तरह थपकियाँ दीं कि जैसे पक्का शहसवार है, और बोला– जानवर तो जानदार है मगर मुनासिब नहीं मालूम होता कि आप लोग तो पैदल चलें और मैं घोड़े पर बैठूं। ऐसा कुछ थका नहीं। मैं भी पैदल ही चलूँगा, इसका मुझे अभ्यास है।

सूबेदार ने कहा– बेटा, जंगल दूर है, थक जाओगे। बड़ा सीधा जानवर है, बच्चा भी सवार हो सकता है।

गजेन्द्र ने कहा-जी नहीं, मुझे भी यों ही चलने दीजिए। गप-शप करते हुए चलेंगे। सवारी में वह लुफ्त कहाँ आप बुजर्ग हैं, सवार हो जायँ।

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