कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
चारों आदमी पैदल चले। लोगों पर गजेन्द्र की इस नम्रता का बहुत अच्छा असर हुआ। सभ्यता और सदाचार तो शहरवाले ही जानते हैं। तिस पर इल्म की बरकत।
थोड़ी दूर के बाद पथरीला रास्ता मिला। एक तरफ़ हरा-भरा मैदान दूसरी तरफ़ पहाड़ का सिलसिला। दोनों ही तरफ़ बबूल, करील, करौंदे और ढाक के जंगल थे। सूबेदार साहब अपनी-फ़ौजी ज़िन्दगी के पिटे हुए किस्से कहते चले आते थे। गजेन्द्र तेज चलने की कोशिश कर रहा था। लेकिन बार-बार पिछड़ जाता था। और उसे दो-चार कदम दौड़कर उनके बराबर होना पड़ता था। पसीने से तर हाँफता हुआ, अपनी बेवकूफी पर पछताता चला जाता था। यहाँ आने की ज़रूरत ही क्या थी, श्यामदुलारी महीने-दो-महीने में जाती ही। मुझे इस वक़्त कुत्तों की तरह दौड़ते आने की क्या ज़रूरत थी। अभी से यह हाल है। शिकार नज़र आ गया तो मालूम नहीं क्या आफत आयेगी। मील-दो-मील की दौड़ तो उनके लिए मामूली बात है मगर यहाँ तो कचूमर ही निकल जायगा। शायद बेहोश होकर गिर पडूँ। पैर अभी से मन-मन-भर के हो रहे थे।
यकायक रास्ते में सेमल का एक पेड़ नज़र आया। नीचे-लाल-लाल फूल बिछे हुए थे, ऊपर सारा पेड़ गुलनार हो रहा था। गजेन्द्र वहीं खड़ा हो गया और उस पेड़ को मस्ताना निगाहों से देखने लगा।
चुन्नू ने पूछा– क्या है जीजा जी, रुक कैसे गये?
गजेन्द्र सिंह ने मुग्ध भाव से कहा– कुछ नहीं, इस पेड़ का आर्कषक सौन्दर्य देखकर दिल बाग-बाग हुआ जा रहा है। अहा, क्या बहार है, क्या रौनक है, क्या शान है कि जैसे जंगल की देवी ने गोधूलि के आकाश को लज्जित करने के लिए केसरिया जोड़ा पहन लिया हो या ऋषियों की पवित्र आत्माएं अपनी शाश्वत यात्रा में यहाँ आराम कर रही हों, या प्रकृति का मधुर संगीत मूर्तिमान होकर दुनिया पर मोहिनी मन्त्र डाल रहा हो आप लोग शिकार खेलने जाइए, मुझे इस अमृत से तृप्त होने दीजिए।
दोनों नौजवान आश्चर्य से गजेन्द्र का मुँह ताकने लगे। उनकी समझ ही में न आया कि यह महाश्य कह क्या रहे हैं। देहात के रहनेवाले जंगलों में घूमनेवाले, सेमल उनके लिए कोई अनोखी चीज़ न थी। उसे रोज़ देखते थे, कितनी ही बार उस पर चढ़े, थे उसके नीचे दौड़े थे, उसके फूलों की गेंद बनाकर खेले थे, उन पर यह मस्ती कभी न छाई थी, सौंदर्य का उपभोग करना बेचारे क्या जानें।
सूबेदार साहब आगे बढ़ गये थे। इन लोगों को ठहरा हुआ देखकर लौट आये और बोले– क्यों बेटा ठहर क्यों गये?
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