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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


गजेन्द्र को महताबियाँ निरापद जान पड़ीं। उनकी लाल, हरी, सुनहरी चमक के सामने उनके गोरे चेहरे और ख़ूबसूरत बालों और रेशमी कुर्तें की मोहकता कितनी बढ़ जायगी। कोई खतरे की बात भी नहीं। मज़े से हाथ में लिए खड़े हैं, गुल टप-टप नीचे गिर रहा है और सबकी निगाहें उनकी तरफ़ लगी हुई हैं उनकी दार्शनिक बुद्धि भी आत्मप्रदर्शन की लालसा से मुक्त न थी। फौरन महताबी ले ली, उदासीनता की एक अजब शान के साथ। मगर पहली ही महताबी छोड़ना शुरू की थी कि दूसरा बमगोला छूटा। आसमान कांप उठा। गजेन्द्र को ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कान के पर्दे फट गये या सिर पर कोई हथौड़ा-गिर पड़ा। महताबी हाथ से छूटकर गिर पड़ी और छाती धड़कने लगी। अभी इस धमाके से सम्हलने न पाये थे कि दूसरा धमाका हुआ। जैसे आसमान फट पड़ा। सारे वायुमण्डल में कम्पन-सा आ गया, चिड़ियाँ घोंसलों से निकल-निकल शोर मचाती हुई भागीं, जानवर रस्सियाँ तुड़ा-तुड़ाकर भागे और गजेन्द्र भी सिर पर पाँवरखकर भागे, सरपट, और सीधे घर पर आकर दम लिया। चुन्नू और मुन्नू दोनों घबड़ा गए। सूबेदार साहब के होश उड़ गए। तीनों आदमी बगटुट दौड़े हुए गजेन्द्र के पीछे चले। दूसरों ने जो उन्हें भागते देखा तो समझे शायद कोई वारदात हो गई। सबके सब उनके पीछे हो लिए। गाँव में एक प्रतिष्ठित अतिथि का आना मामूली बात न थी। सब एक-दूसरे से पूछ रहे थे– मेहमान को हो क्या गया? माजरा क्या है? क्यों यह लोग दौड़े जा रहे हैं।

एक पल में सैकड़ों आदमी सूबेदार साहब के दरवाज़े पर हाल-चाल पूछने लिए जमा हो गये। गाँव का दामाद कुरूप होने पर भी दर्शनीय और बदहाल होते हुए भी सबका प्रिय होता है।

सूबेदार ने सहमी हुई आवाज़ में पूछा– तुम वहाँ से क्यों भाग आए, भइया?

गजेन्द्र को क्या मालूम था कि उसके चले आने से यह तहलका मच जायगा। मगर उसके हाज़िर दिमाग ने जवाब सोच लिया था और जवाब भी ऐसा कि गाँव वालों पर उसकी अलौकिक दृष्टि की धाक जमा दे।

बोला– कोई खास बात न थी, दिल में कुछ ऐसा ही आया कि यहाँ से भाग जाना चाहिए।

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