कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
गजेन्द्र ने अभी तक किसी बड़े गाँव की होली न देखी थी। उसके शहर में तो हर मुहल्ले में लकड़ी के मोटे-मोटे दो-चार कुन्दे जला दिये जाते थे, जो कई-कई दिन तक जलते रहते थे। यहाँ की होली एक लम्बे-चौड़े मैंदान में किसी पहाड़ की ऊँची चोटी की तरह आसमान से बातें कर रही थी। ज्यों ही पंडित जी ने मंत्र पढ़कर नये साल का स्वागत किया, आतिशबाजी छूटने लगी। छोटे-बड़े सभी पटाखे, छछूंदरें, हवाइयाँ छोड़ने लगे। गजेन्द्र के सिर पर से कई छछूंदर सनसनाती हुई निकल गयी। हरेक पटाखे पर बेचारा दो-दो चार-चार कदम पीछे हट जाता था और दिल में इस उजड़्ड देहातियों को कोसता था। यह क्या बेहूदगी है, बारूद कहीं कपड़े में लग जाय, कोई और दुर्घटना हो जाय तो सारी शरारत निकल जाए। रोज़ ही तो ऐसी वारदातें होती रहती हैं, मगर इन गंवारों को क्या ख़बर। यहाँ तो दादा ने जो कुछ किया वही करेंगे। चाहे उसमें कुछ तुक हो या न हो।
अचानक नज़दीक से एक बमगोले के छूटने की गगनभेदी आवाज आयी कि जैसे बिजली कड़की हो। गजेन्द्र सिंह चौंककर कोई दो फीट ऊँचे उछल गये। अपनी ज़िन्दगी में वह शायद कभी इतना न कूदे थे। दिल धक-धक करने लगा, गोया तोप के निशाने के सामने खड़े हों। फौरन दोनों कान उंगलियों से बन्द कर लिए और दस कदम और पीछे हट गये।
चुन्नू ने कहा– जीजाजी, आप क्या छोड़ेंगे, क्या लाऊँ?
मुन्नू बोला– हवाइयाँ छोड़िए जीजाजी, बहुत अच्छी हैं। आसमान में निकल जाती हैं।
चुन्नू– हवाइयाँ बच्चे छोड़ते हैं कि यह छोड़ेगे? आप बमगोला छोड़िए भाई साहब।
गजेन्द्र– भाई, मुझे इन चीजों का शौक नहीं। मुझे तो ताज्जुब हो रहा है बूढ़े भी कितनी दिलचस्पी से आतिशबाजी छुड़ा रहे हैं।
मुन्नू-दो-चार महताबियाँ तो ज़रूर छोड़िए।
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