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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘त्यौहार में गाओ-बजाओ, अच्छी-अच्छी चीजें पकाओ-खाओ, खैरात करो, या-दोस्तों से मिलो, सबसे मुहब्बत से पेश आओ, बारूद उड़ने का नाम त्यौहार नहीं है।’

`रात को बारह बज गये थे। किसी ने दरवाज़े पर धक्का मारा, गजेन्द्र ने चौंककर पूछा–  यह धक्का किसने मारा?

श्यामा ने लापरवाही से कहा– बिल्ली-विल्ली होगी।

कई आदमियों के फट-फट करने की आवाजें आयी, फिर किवाड़ पर धक्का पड़ा। गजेन्द्र को कंपकंपी छूट गयी, लालटेन लेकर दराज़ से झाँका तो चेहरे का रंग उड़ गया– चार-पाँच आदमी कुर्ते पहने, पगड़ियां बाँधे, दाढ़ियां लगाये, कंधे पर बन्दूकें रखे, किवाड़ को तोड़ डालने की जबर्दस्त कोशिश में लगे हुए थे। गजेन्द्र कान लगाकर बातें सुनने लगा– ‘दोनों सो गये हैं, किवाड़ तोड़ डालो, माल अलमारी में है।’

‘और अगर दोनों जाग गये?’

‘औरत क्या कर सकती है, मर्द को चारपाई से बांध देंगे।’

‘सुनते हैं गजेन्द्र सिंह कोई बड़ा पहलवान है।’

‘कैसा ही पहलवान हो, चार हथियारबन्द आदमियों के सामने क्या कर सकता है।’

गजेन्द्र के काटो तो बदन में ख़ून नहीं। शयामदुलारी से बोले– यह डाकू मालूम होते हैं। अब क्या होगा, मेरे तो हाथ-पाँव कांप रहे हैं।

चोर-चोर पुकारो, जाग हो जायगी, आप भाग जायँगे। नहीं मैं चिलाती हूँ। चोर का दिल आधा।’

‘ना-ना, कहीं ऐसा गज़ब न करना। इन सबों के पास बन्दूके हैं। गाँव में इतना सन्नाटा क्यों है? घर के आदमी क्या हुए?’

‘भइया और मुन्नू दादा खलिहान में सोने गये हैं, काका दरवाज़े पर पड़े होंगे, उनके कानों पर तोप छूटे तब भी न जागेंगे।’

‘इस कमरे में कोई दूसरी खिड़की भी तो नहीं है कि बाहर आवाज़ पहुंचे। मकान है या कैदखाने’

‘मैं तो चिल्लाती हूँ।’

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