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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


‘अरे नहीं भाई, क्यों जान देने पर तुली हो। मैं तो सोचता हूँ, हम दोनों चुपचाप लेट जायँ और आँखें बन्द कर लें। बदमाशों को जो कुछ ले जाना हो ले जायँ, जान तो बचे। देखो किवाड़ हिल रहे हैं। कहीं टूट न जायँ। हे ईश्वर, कहाँ जायँ, इस मुसीबत में तुम्हारा ही भरोसा है। क्या जानता था कि यह आफ़त आने वाली है, नहीं आता ही क्यों? बस चुप्पी ही साध लो। अगर हिलायें-विलायें तो भी साँस मत लेना।’

‘मुझसे तो चुप्पी साधकर पड़ा न रहा जाएगा।’

‘जेवर उतारकर रख क्यों नहीं देती, शैतान जेवर ही तो लेंगे।’

‘जेवर तो न उतारूँगी चाहे कुछ ही क्यों न हो जाय।’

‘क्यों जान देने पर तुली हुई हो?’

खुशी से तो जेवर न उतारूँगी, जबर्दस्त और बात है।’

खामोशी, सुनो सब क्या बातें कर रहे हैं।’

बाहर से आवाज़ आई– किवाड़ खोल दो नहीं तो हम किवाड़ तोड़ कर अन्दर आ जायँगे।

गजेन्द्र ने श्यामदुलारी की मिन्नत की– मेरी मानो श्यामा, जेवर उतारकर रख दो, मैं वादा करता हूँ बहुत जल्दी नये ज़ेवर बनवा दूँगा।

बाहर से आवाज़ आयी-क्यों, शामतें आयी हैं! बस एक मिनट की मुहलत और देते हैं, अगर किवाड़ न खोले तो खैरियत नहीं।

गजेन्द्र ने श्यामदुलारी से पूछा– खोल दूँ?

‘हाँ, बुला लो तुम्हारे भाई-बन्द हैं? वह दरवाज़े को बाहर से ढकेलते हैं, तुम अन्दर से बाहर को ठेलो।’

‘और जो दरवाज़ा मेरे ऊपर गिर पड़े? पांच-पांच जवान हैं!’

‘वह कोने में लाठी रखी है, लेकर खड़े हो जाओ।’

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