कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
‘तुम पागल हो गयी हो।’
‘चुन्नी दादा होते तो पांचों को गिराते।’
‘मैं लट्ठबाज नहीं हूँ।’
‘तो आओ मुँह ढांपकर लेट जाओ, मैं उन सबों से समझ लूंगी।’
‘तुम्हें तो औरत समझकर छोड़ देंगे, माथे मेरे जायगी।’
‘मैं तो चिल्लाती हूँ।’
‘तुम मेरी जान लेकर छोड़ोगी!
‘मुझसे तो अब सब्र नहीं होता, मैं किवाड़ खोल देती हूँ।’
उसने दरवाज़ा खोल दिया। पांचों चोर कमरे में भड़भड़कर घुस आए। एक ने अपने साथी से कहा– मैं इस लौंडे को पकड़े हुए हूँ तुम औरत के सारे गहने उतार लो।
दूसरा बोला-इसने तो आँखों बन्द कर लीं। अरे, तुम आँखें क्यों नहीं खोलती जी?
तीसरा-यार, औरत तो हसीन है!
चौथा– सुनती है ओ मेहरिया, जेवर दे दे नहीं गला घोंट दूँगा।
गजेन्द्र दिल में बिगड़ रहे थे, यह चुड़ैल जेवर क्यों नहीं उतार देती।
श्यामादुलारी ने कहा– गला घोंट दो, चाहे गोली मार दो जेवर न उतारूंगी।
पहला– इसे उठा ले चलो। यों न मानेगी, मन्दिर खाली है।
दूसरा– बस, यही मुनासिब है, क्यों रे छोकरी, हामारे साथ चलेगी?
श्यामदुलारी– तुम्हारे मुँह में कालिख लगा दूँगी।
तीसरा– न चलेगी तो इस लौंडे को ले जाकर बेच डालेंगे।
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