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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


रात गुजारी, तो साहब ने आकर मन्नू को दो-तीन ठोकरे जमायीं। सुअर! रात-भर चिल्ला-चिल्लाकर नींद हराम कर दी। आँख तक न लगी! बचा, आज भी तुमने गुल मचाया, तो गोली मार दूँगा। यह कहकर वह तो चले गए, अब नटखट लड़कों की बारी आई। कुछ घर के और कुछ बाहर के लड़के जमा हो गये। कोई मन्नू को मुँह चिढ़ाता, कोई उस पर पत्थर फेंकता और कोई उसको मिठाई दिखाकर ललचाता था। कोई उसका रक्षक न था, किसी को उस पर दया न आती थी। आत्मरक्षा की जितनी क्रियाएं उसे मालूम थीं, सब करके हार गया। प्रणाम किया, पूजा-पाठ किया लेकिन इसका उपहार यही मिला कि लड़कों ने उसे और भी दिक करना शुरू किया। आज किसी ने उसके सामने चने भी न डाले और यदि डाले भी तो वह खा न सकता। शोक ने भोजन की इच्छा न रक्खी थी।

सन्ध्या समय मदारी पता लगाता हुआ साहब के घर पहुँचा। मन्नू उसे देखते ही ऐसा अधीर हुआ, मानो जंजीर तोड़ डालेगा, खंभे को गिरा देगा। मदारी ने जाकर मन्नू को गले से लगा लिया और साहब से बोला– ‘हुजूर, भूल-चूक तो आदमी से भी हो जाती है, यह तो पशु है! मुझे चाहे जो सजा दीजिए पर इसे छोड़ दीजिए। सरकार, यही मेरी रोटियों का सहारा है। इसके बिना हम दो प्राणी भूखों मर जाएँगे। इसे हमने लड़के की तरह पाला है, जब से यह भागा है, मदारिन ने दाना-पानी छोड़ दिया है। इतनी दया कीजिए सरकार, आपका आकबाल सदा रोशन रहे, इससे भी बड़ा ओहदा मिले, कलम चाक हो, मुद्दई बेबाक हो। आप हैं सपूत, सदा रहें मजूबत। आपके बैरी को दाबे भूत।’ मगर साहब ने दया का पाठ न पढ़ा था। घुड़ककर बोले– चुप रह पाजी, टें-टें करके दिमाग चाट गया। बचा बन्दर छोड़कर बाग का सत्यानाश कर डाला, अब खुशामद करने चले हो। जाकर देखो तो, इसने कितने फल खराब कर दिये। अगर इसे ले जाना चाहता है तो दस रुपया लाकर मेरी नज़र कर नहीं तो चुपके से अपनी राह पकड़। यह तो यहीं बँधे-बँधे मर जाएगा, या कोई इतने दाम देकर ले जायगा।

मदारी निराश होकर चला गया। दस रुपये कहाँ से लाता? बुधिया से जाकर हाल कहा। बुधिया को अपनी तरस पैदा करने की शक्ति पर ज़्यादा भरोसा था। बोली–  ‘बस, देख ली तुम्हारी करतूत! जाकर लाठी-सी मारी होगी। हाकिमों से बड़े दांव-पेंच की बातें की जाती हैं, तब कहीं जाकर वे पसीजते हैं। चलो मेरे साथ, देखो छुड़ा लाती हूँ कि नहीं।’ यह कहकर उसने मन्नू का सब सामान एक गठरी में बाँधा और मदारी के साथ साहब के पास आई, मन्नू अब की इतने जोर से उछला कि खंभा हिल उठा, बुधिया ने कहा–  ‘सरकार, हम आपके द्वार पर भीख माँगने आये हैं, यह बन्दर हमको दान दे दीजिए।’

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