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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


संयोगवश एक दिन सर्कस के पंडाल में आग लग गई, सर्कस के नौकर– चाकर सब जुआरी थे। दिन-भर जुआ खेलते, शराब पीते और लड़ाई-झगड़ा करते थे। इन्हीं झंझटों में एकाएक गैस की नली फट गई। हाहाकार मच गया। दर्शक वृन्द जान लेकर भागे। कंपनी के कर्मचारी अपनी चीजें निकालने लगे। पशुओं की किसी को ख़बर न रही। सर्कस में बड़े-बड़े भयंकर जीव-जन्तु तमाशा करते थे। दो शेर, कई चीते, एक हाथी, एक रीछ था। कुत्तों घोड़ों तथा बन्दरों की संख्या तो इससे कहीं अधिक थी। कंपनी धन कमाने के लिए अपने नौकरों की जान को कोई चीज़ नहीं समझती थी। ये सब के सब जीव इस समय तमाशे के लिए खोले गये थे। आग लगते ही वे चिल्ला-चिल्लाकर भागे। मन्नू भी भागा खड़ा हुआ। पीछे फिरकर भी न देखा कि पंडाल जला या बचा।

मन्नू कूदता-फाँदता सीधे उसी घर पहुँचा जहाँ, जीवनदास रहता था, लेकिन द्वार बन्द था। खरपैल पर चढ़कर वह घर में घुस गया, मगर किसी आदमी का चिन्ह नहीं मिला। वह स्थान, जहाँ वह सोता था, और जिसे बुधिया गोबर से लीपकर साफ़रक्खा करती थी, अब घास-पात से ढका हुआ था, वह लकड़ी जिस पर चढ़कर कूदा करता था, दीमकों ने खा ली थी। मुहल्लेवाले उसे देखते ही पहचान गए। शोर मच गया– मन्नू आया, मन्नू आया।

मन्नू उस दिन से रोज सन्ध्या के समय उसी घर में आ जाता, और अपने पुराने स्थान पर लेट रहता। वह दिन-भर मुहल्ले में घूमा करता था, कोई कुछ दे देता, तो खा लेता था, मगर किसी की कोई चीज़ नहीं छूता था। उसे अब भी आशा थी कि मेरा स्वामी यहाँ मुझसे अवश्य मिलेगा। रातों को उसके कराहने की करुण ध्वनि सुनाई देती थी। उसकी दीनता पर देखने वालों की आँखों से आँसू निकल पड़े थे।

इस प्रकार कई महीने बीत गये। एक दिन मन्नू गली में बैठा हुआ था, इतने में लड़कों का शोर सुनाई दिया। उसने देखा, एक बुढ़िया नंगे बदन, एक चीथड़ा कमर में लपेटे सिर के बाल छिटकाए, भूतनियों की तरह चली आ रही है, और कई लड़के उसके पीछे पत्थर फेंकते पगली नानी! पगली नानी! की हाँक लगाते, तालियाँ बजाते चले जा रहे हैं। वह रह-रहकर रुक जाती है और लड़को से कहती है–  ‘मैं पागल नहीं हूँ, मूझे पगली क्यों कहते हो? आख़िर बुढ़िया ज़मीन पर बैठ गई, और बोली– ‘बताओ, मुझे पगली क्यों कहते हो?’ उसे लड़कों पर लेशमात्र भी क्रोध न आता था। वह न रोती थी, न हँसती। पत्थर लग भी जाता चुप हो जाती थी।

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