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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


जैनब– या हज़रत, मैंने खुदा की राह में सब कुछ त्याग देने का निश्चय किया है दुनिया के लिए अपनी आक़बत को नहीं खोना चाहती।

हज़रत– जैनब, खुदा की राह में काँटे हैं।

जैनब– लगन को काँटों की परवाह नहीं होती।

हज़रत– ससुराल से नाता टूट जायेगा।

ज़ैनब– खुदा से तो नाता जुड़ जायेगा।

हज़रत– और अबुलआस?

जैनब की आँखों में आँसू डबडबा आये। कातर स्वर से बोली– अब्बाजान, इसी बेड़ी ने इतने दिनों मुझे बाँधे रक्खा था, नहीं तो मैं कब की आपकी शरण में आ चुकी होती। मैं जानती हूँ, उनसे जुदा होकर जीती न रहूँगी और शायद उनको भी मेरा वियोग दुस्सह्य होगा, पर मुझे विश्वास है कि एक दिन ज़रूर आयेगा जब वे खुदा पर ईमान लायेंगे और मुझे फिर उनकी सेवा का अवसर मिलेगा।

हज़रत– बेटी, अबुलआस ईमानदार है, दयाशील है, सत्यवक्ता है, किन्तु उसका अहंकार शायद अन्त तक उसे ईश्वर से विमुख रखे है। वह तक़दीर को नहीं मानता, आत्मा को नहीं मानता, स्वर्ग और नरक को नहीं मानता। कहता है, ‘सृष्टि-संचालन के लिए खुदा की ज़रूरत ही क्या है? हम उससे क्यों डरें? विवेक और बुद्धि की हिदायत हमारे लिए काफ़ी है?’ ऐसा आदमी खुदा पर ईमान नहीं ला सकता। अधर्म को जीतना आसान है पर जब वह दर्शन का रूप धारण कर लेता है तो अजेय हो जाता है।

ज़ैनब ने निश्चयात्मक भाव से कहा– हज़रत, आत्मा का उपकार जिसमें हो मुझे वह चाहिए। मैं किसी इन्सान को अपने और खुदा

के बीच न रहने दूँगी।

हज़रत– खुदा तुझ पर दया करे बेटी। तेरी बातों ने दिल खुश कर दिया। यह कहकर उन्होंने जैनब को प्रेम से गले लगा लिया।

दूसरे दिन ज़ैनब को जामा मसजिद में यथा विधि कलमा पढ़ाया गया।

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