कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
हज़रत ने विस्मित होकर कहा– तुम्हें मालूम नहीं कि वह खुदा और रसूल पर ईमान ला चुकी है?
अबु०– जी हाँ, मालूम है।
हज०– इस्लाम ऐसे सम्बन्धों का निषेध करता है।
अबु०– क्या इसका मतलब है कि जैनब ने मुझे तलाक दे दिया?
हज०– अगर यही मतलब हो तो?
अबु०– तो कुछ नहीं, जैनब को खुदा और रसूल की बन्दगी मुबारक हो। मैं एक बार उससे मिलकर घर चला जाऊँगा और फिर कभी आपको अपनी सूरत न दिखाऊँगा। लेकिन उस दशा में अगर कुरैश जाति आपसे लड़ने के लिए तैयार हो जाय तो इसका इलजाम मुझ पर न होगा। हाँ, अगर जैनब मेरे साथ जायगी तो कुरैश के क्रोध का भाजन मैं हूँगा। आप और आपके मुरीदों पर कोई आफत न आयेगी।
हज०– तुम दबाव में आकर जैनब को खुदा की तरफ़ से फेरने का तो यत्न न करोगे?
अब०– मैं किसी के धर्म में विघ्न डालना लज्जाजनक समझता हूँ।
हज०– तुम्हें लोग जैनब को तलाक देने पर तो मजबूर न करेंगे?
अबु०– मैं जैनब को तलाक देने के पहले ज़िन्दगी को तलाक दे दूँगा।
हज़रत को अबुलआस की बातों से इत्मीनान हो गया। आस को हरम में जैनब से मिलने का अवसर मिला। आस ने पूछा– जैनब, मैं तुम्हें साथ ले चलने आया हूँ। धर्म के बदलने से कहीं तुम्हारा मन तो नहीं बदल गया?
जैनब रोती हुई पति के पैरों पर गिर पड़ी और बोली– स्वामी, धर्म बार-बार मिलता है, हृदय केवल एक बार। मैं आपकी हूँ। चाहे यहाँ रहूँ, चाहे वहाँ। लेकिन समाज मुझे आपकी सेवा में रहने देगा?
अबु०– यदि समाज न रहने देगा तो मैं समाज ही से निकल जाऊँगा। दुनिया में रहने के लिए बहुत स्थान है। रहा मैं, तुम ख़ूब जानती हो कि किसी के धर्म में विघ्न डालना मेरे सिद्धान्त के प्रतिकूल है।
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