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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


अन्त में उन्होंने निश्चय किया, यह वेदना सहूँगा, अपमान न सहूँगा। प्रेम को गौरव पर समर्पित कर दूँगा। बोले– मुझे आपका फैसला मंजूर है। जैनब मेरा फ़दिया होगी।

निश्चय किया गया कि ज़ैद अबुलआस के साथ जायँ और आबादी से बाहर ठहरे। आस घर जाकर तुरन्त जैनब को वहाँ भेज दें। आस पर इतना विश्वास था कि वे अपना वचन पूरा करेंगे।

आस घर पहुँचे तो जैनब उनसे गले मिलने दौड़ी। आस हट गये और कातर स्वर से बोले– नहीं जैनब, मैं तुमसे गले न मिलूँगा। मैं तुम्हें अपने फदिये के रूप में दे आया। अब मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तुम्हारा हार है, ले लो, और फौरन यहाँ से चलने की तैयारी करो। ज़ैद तुम्हें लेने को आये हैं।

जैनब पर वज्र-सा गिर पड़ा। पैर बँध गये, वहीं चित्र की भाँति खड़ी रह गयी। वज्र ने रक्त को जला दिया, आँसुओं को सुखा दिया, चेतना ही न रही, रोती और बिलखती क्या। एक क्षण के बाद उसने एक बार माथा ठोका– निर्दय तक़दीर के सामने सिर झुका दिया। चलने को तैयार हो गयी। घोर नैराश्य इतना दुखदायी नहीं होता जितना हम समझते हैं। उसमें एक रसहीन शान्ति होती है। जहाँ सुख की आशा नहीं वहाँ दुख का कष्ट कहाँ!

मदीने में रसूल की बेटी की जितनी इज़्ज़त होनी चाहिए उतनी होती थी। वह पितागृह की स्वामिनी थी। धन था, मान था, गौरव था, धर्म था, प्रेम न था। आँख में सब कुछ था, केवल पुतली न थी। पति के वियोग में रोया करती थी। जिन्दा थी, मगर जिन्दा दरगोर। तीन साल तीन युगों की भाँति बीते। घण्टे, दिन और वर्ष साधारण व्यवहारों के लिए हैं प्रेम के यहाँ समय का माप कुछ और ही है।

उधर अबुलआस द्विगुण उत्साह के साथ धनोपार्जन में लीन हुआ, महीनों घर न आता, हँसना-बोलना सब भूल गया। धन ही उसके जीवन का एक मात्र आधार था; उसके प्रणय-वंचित हृदय को किसी विस्मृतिकारक वस्तु की चाह थी। नैराश्य और चिन्ता बहुधा शराब से शान्त होती है, प्रेम उन्माद से। अबुलआस को धनोन्माद हो गया। धन के आवरण में छिपा हुआ वियोग-दुख था, माया के पर्दे में छिपा हुआ प्रेम-वैराग्य।

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