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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


जाड़ों के दिन थे। नाड़ियों में रुधिर जमा जाता था। अबुलआस मक्का से माल लादकर एक क़ाफिले के साथ चला। रकफ़ों का एक दल भी साथ था। कुरैशियों ने मुसलमानों के कई काफिले लूट लिये थे। अबुलआस को संशय था कि मुसलमानों का आक्रमण होगा, इसलिए उन्होंने मदीने की राह छोड़ एक दूसरा रास्ता अख्तियार किया। पर दुर्दैव, मुसलमानों को टोह मिल ही गयी। जैद ने सत्तर चुने हुए आदमियों के साथ काफ़िले पर धावा कर दिया। धन के भक्त धर्म के सेवकों से क्या बाजी ले जाते। सत्तर ने सात सौ को मार भगाया। कुछ मरे, अधिकांश भागे, कुछ कैद हो गये। मुसलमानों को अतुल धन हाथ लगा। क़ैदी घाते में मिले। अबुलआस फिर क़ैद हो गया।

क़ैदियों के भाग्य-निर्णय के लिए नीति के अनुसार पंचायत चुनी गयी। जैनब को यह ख़बर मिली तो आशाएँ जाग उठीं; आशा मरती नहीं केवल सो जाती है। पिंजरे में बन्द पक्षी की भाँति तड़फड़ाने लगी, पर क्या करे, किससे कहे, अबकी तो फ़दिये का भी कोई ठिकाना न था। या खुदा क्या होगा?

पंचों ने अबकी हज़रत मुहम्मद ही को अपना प्रधान बनाया। हज़रत ने इनकार किया, पर अन्त में उनके आग्रह से विवश हो गये।

अबुलआस सिर झुकाये बैठे हुए थे। हज़रत ने एक बार उन पर करुणा-सूचक दृष्टि डाली, फिर सिर झुका लिया।

पंचायत शुरू हुई। अन्य कैदियों के घरों से मुक्तिधन आ गया था। वे मुक्त किये गये। अबुलआस के घर से मुक्तिधन न आया था। हज़रत ने हुक्म दिया– इनका सारा माल और असबाब जब्त कर लिया जाय और ये उस वक़्त तक बन्दी रहें जब तक इन्हें कोई छुड़ाने न आये। उनके अंतिम शब्द ये थे– अबुलआस, इसलाम की रणनीति के अनुसार तुम गुलाम हो। तुम्हें बाज़ार में बेचकर रुपया मुसलमानों में तकसीम होना चाहिए था। पर तुम ईमानदार आदमी हो, इसलिए तुम्हारे साथ इतनी रिआयत की गयी।

ज़ैनब दरवाज़े के पास आड़ में बैठी हुई थी। हज़रत का यह फैसला सुनकर रो पड़ी, तब घर से बाहर निकल आयी और अबुलआस का हाथ पकड़कर बोली– अगर मेरा शौहर गुलाम है तो मैं उसकी लौंडी हूँ। हम दोनों साथ बिकेंगे या साथ क़ैद होंगे।

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