कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
कृष्णा अपने कमरे में जाकर थकी हुई-सी एक कुर्सी पर बैठ गई और सोचने लगी– कहीं प्रभा सुन ले तो बात का बतंगड़ हो जाय, सारे शहर में इसकी चर्चा होने लगे और हमें कहीं मुँह दिखाने को जगह न रहे। और यह सब एक जऱा-सी दिल्लगी के कारण पर पशुपति का प्रेम सच्चा है, इसमें सन्देह नहीं। वह जो कुछ कहता है, अन्तःकरण से कहता है। अगर मैं इस वक़्त ज़रा-सा संकेत कर दूँ तो वह प्रभा को भी छोड़ देगा। अपने आपे में नहीं है। जो कुछ कहूँ वह करने को तैयार है। लेकिन नहीं, प्रभा डरो मत, मैं तुम्हारा सर्वनाश न करूँगी। तुम मुझसे बहुत नीचे हो यह मेरे अनुपम सौन्दर्य के लिए गौरव की बात नहीं कि तुम जैसी रूप-विहीना से बाजी मार ले जाऊँ। अभागे पशुपति, तुम्हारे भाग्य में जो कुछ लिखा था वह हो चुका। तुम्हारे ऊपर मुझे दया आती है, पर क्या किया जाय!
एक ख़त पहले हाथ पड़ चुका था। यह दूसरा पत्र था, जो प्रभा को पतिदेव के कोट की जेब में मिला। कैसा पत्र था आह इसे पढ़ते ही प्रभा की देह में एक ज्वाला-सी उठने लगी। तो यों कहिए कि ये अब कृष्णा के हो चुके अब इसमें कोई सन्देह नहीं रहा। अब मेरे जीने को धिक्कार है जब जीवन में कोई सुख ही नहीं रहा, तो क्यों न इस बोझ को उतार कर फेक दूँ। वही पशुपति, जिसे कविता से लेशमात्र भी रुचि न थी, अब कवि हो गया था और कृष्णा को छन्दों में पत्र लिखता था। प्रभा ने अपने स्वामी को उधर से हटाने के लिए वह सब कुछ किया जो उससे हो सकता था, पर प्रेम का प्रवाह उसके रोके न रुका और आज उस प्रवाह में उसके जीवन की नौका निराधार वही चली जा रही है।
इसमें सन्देह नहीं कि प्रभा को अपने पति से सच्चा प्रेम था, लेकिन आत्मसमर्पण की तुष्टि आत्मसमर्पण से ही होती है। वह उपेक्षा और निष्ठुरता को सहन नहीं कर सकता। प्रभा के मन के विद्रोह का भाव जाग्रत होने लगा। उसका आत्माभिमान जाता रहा। उसके मन में न जाने कितने भीषण संकल्प होते, किन्तु अपनी असमर्थता और दीनता पर आप ही आप रोने लगती। आह! उसका सर्वस्व उससे छीन लिया गया और अब संसार में उसका कोई मित्र नहीं, कोई साथी नहीं!
पशुपति आजकल नित्य बनाव-सवार में मग्न रहता, नित्य नये-नये सूट बदलता। उसे आइने के सामने अपने बालों को संवारते देखकर प्रभा की आखों से आँसू बहने लगते। यह सारी तैयारी उसी दुष्ट के लिए हो रही है। यह चिन्ता जहरीले सापं की भांति उसे डस लेती थी; वह अब अपने पति को प्रत्येक बात प्रत्येक गति को सूक्ष्म दृष्टि से देखती। कितनी ही बातें जिन पर वह पहले ध्यान भी न देती थी, अब रहस्य से भरी हुई जान पड़ती। वह रात को न सोती, कभी पशुपति की जेब टटोलती, कभी उसकी मेज पर रक्खे हुए पत्रों को पढ़ती! इसी टोह में वह रात-दिन पड़ी रहती।
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