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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


वह सोचने लगी– मैं क्या प्रेम-वंचिता बनी बैठी रहूँ? क्या मैं प्राणेश्वरी नहीं बन सकती? क्या इसे परित्यक्ता बनकर ही काटना होगा! आह निर्दयी तूने मुझे धोखा दिया। मुझसे आँखें फेर ली। पर सबसे बड़ा अनर्थ यह किया कि मुझे जीवन का कलुषित मार्ग दिखा दिया। मैं भी विश्वासघात करके तुझे धोखा देकर क्या कलुषित प्रेम का आन्नद नहीं उठा सकती? अश्रुधारा से सींचकर ही सही, पर क्या अपने लिए कोई बाटिका नहीं लगा सकती? वह सामने के मकान में घुघंराले बालों वाला युवक रहता है और जब मौका पाता है, मेरी ओर सचेष्ट नेत्रों से देखता। क्या केवल एक प्रेम-कटाक्ष से मैं उसके हृदय पर अधिकार नहीं प्राप्त कर सकती? अगर मैं इस भाँति निष्ठुरता का बदला लूँ तो क्या अनुचित होगा? आख़िर मैंने अपना जीवन अपने पति को किस लिए सौंपा था? इसीलिए तो कि सुख से जीवन व्यतीत करूँ। चाहूँ और चाही जाऊँ और इस प्रेम-साम्राज्य की अधीश्वरी बनी रहूँ। मगर आह! वे सारी अभिलाषाएँ धूल में मिल गई। अब मेरे लिए क्या रह गया है? आज यदि मैं मर जाऊँ तो कौन रोयेगा? नहीं, घी के चिराग जलाए जाएंगें। कृष्णा हँसकर कहेगी– अब बस हम है और तुम। हमारे बीच में कोई बाधा, कोई कंटक नहीं है।

आख़िर प्रभा इन कलुषित भावनाओं के प्रवाह में बह चली। उसके हृदय में रातों को निद्रा और आशाविहीन रातों को बड़े प्रबल वेग से यह तूफ़ान उठने लगा। प्रेम तो अब किसी अन्य पुरुष के साथ कर सकती थी, यह व्यापार तो जीवन में केवल एक ही बार होता है। लेकिन वह प्राणेश्वरी अवश्य बन सकती थी और उसके लिए एक मधुर मुस्कान, एक बाँकी निगाह काफ़ी थी। और जब वह किसी की प्रेमिका हो जायेगी तो यह विचार कि मैंने पति से उसकी बेवफाई का बदला ले लिया कितना आनन्दप्रद होगा! तब वह उसके मुख की ओर कितने गर्व, कितने संतोष, कितने उल्लास से देखेगी।

सन्ध्या का समय था। पशुपति सैर करने गया था। प्रभा कोठे पर चढ गई और सामने वाले मकान की ओर देखा। घुंघराले बालवाला युवक उसके कोठे की ओर ताक रहा था। प्रभा ने आज पहली बार उस युवक की ओर मुस्करा कर देखा। युवक भी मुस्कराया और अपनी गर्दन झुकाकर मानों यह संकेत किया कि आपकी प्रेम दृष्टि का भिखारी हूँ। प्रभा ने गर्व से भरी हुई दृष्टि इधर-उधर दौड़ाई, मानों वह पशुपति से कहना चाहती थी– तुम उस कुलटा के पैरों पड़ते हो और समझते हो कि मेरे हृदय को चोट नहीं लगती। लो तुम भी देखो और अपने हृदय पर चोट न लगने दो, तुम उसे प्यार करो, मैं भी इससे हँसू-बोलू। क्यों? यह अच्छा नहीं लगता? इस दृश्य को शान्त चित से नहीं देख सकते? क्यों रक्त खौलने लगता है? मैं वही तो कह रही हूँ जो तुम कर रहे हो!

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