कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
ताँगेवाले की बड़
लेखक को इलाहाबाद में एक बार ताँगे में लम्बा सफर करने का संयोग हुआ। तांगे वाले मियां जम्मन बड़े बातूनी थे। उनकी उम्र पचास के करीब थी, उनकी बड़ से रास्ता इस आसानी से तस हुआ कि कुछ मालूम ही न हुआ। मैं पाठकों के मनोरंजन के लिए उनकी जीवन और बड़ पेश करता हूँ।
जुम्मन– कहिए बाबूजी, तांगा…वह तो इस तरफ़ देखते ही नहीं, शायद इक्का लेंगे। मुबारक। कम खर्च बालानशीन, मगर कमर रह जायगी बाबूजी, सड़क ख़राब है, इक्के में तकलीफ़ होगी। अख़बार में पढ़ा होगा कल चार इक्के इसी सड़क पर उलट गये। चुंगी (म्युनिस्पिलटी) सलामत रहे, इक्के बिल्कुल बन्द हो जाएँगे। मोटर, जारी तो सड़क खराब करे और नुकसान हो हम गरीब इक्केवालों का। कुछ दिनों में हवाई जहाज में सवारियां चलेंगी, तब हम इक्केवालों कों सड़क मिल जायगी। देखेंगे उस वक़्त इन लारियों को कौन पूछता है, आजायबघरों में देखने को मिले तो मिलें। अभी तो उनके दिमाग ही नहीं मिलते। अरे साहब, रास्ता निकलना दुश्वार कर दिया है, गोया कुल सड़क उन्ही के वास्ते है और हमारे वास्ते पटरी और धूल! अभी ऐठतें है, हवाई जहाजों को आने दीजिए। क्यों हूज़ूर, इन मोटर वाले की आधी आमदनी लेकर सरकार सड़क की मरम्मत में क्यों नहीं खर्च करती? या पेट्रोल पर चौगुना टैक्स लगा दे। यह अपने को टैक्सी कहते है, इसके माने तो टैक्स देने वाले है। ऐ हुज़ूर, मेरी बुढ़िया कहती है इक्का छोड़ तांगा लिया, मगर अब तांगे में भी कुछ नहीं रहा, मोटर लो। मैंने जवाब दिया कि अपने हाथ-पैर की सवारी रखोगी या दूसरे के। बस हुज़ूर वह चुप हो गयी। और सुनिए, कल की बात है कल्लन ने मोटर चलाया, मियां एक दरख्त से टकरा गये, वही शहीद हो गये। एक बेवा और दस बच्चे यतीम छोड़े। हुज़ूर, मैं गरीब आदमी हूँ, अपने बच्चों को पाल लेता हूँ, और क्या चाहिए। आज कुछ कम चालीस साल से इक्केवानी करता हूँ, थोड़े दिन और रहे वह भी इसी तरह चाबुक लिये कट जाएँगे। फिर हुज़ूर देखें, तो इक्का, ताँगा और घोड़ा गिरे पर भी कुछ-न-कुछ दे ही जायेगा। बरअक्स इसके मोटर बन्द हो जाय तो हुज़ूर उसका लोहा दो रुपये में भी कोई न लेगा। हुज़ूर घोड़ा घोड़ा ही है, सवारियां पैदल जा रही है, या हाथी की लाश खीचं रही है। हुजूर घोड़े पर हर तरह का काबू और हर सूरत में नफ़ा। मोटर में कोई आराम थोड़े ही है। ताँगे में सवारी भी सो रही है, हम भी सो रहे है और घोड़ा भी सो रहा है मगर मंज़िल तय हो रही है। मोटर के शारे से तो कान के पर्दे फटते है और हाँकने वाले को तो जैस चक्की पीसना पड़ता है।
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