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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


ऐ हुजूर, औरतें भी इक्के-ताँगे को बड़ी बेदर्दी से इस्तेमाल करती है। कल की बात है, सात-आठ औरते आई और पूछने लगी कि तिरेबेनी का क्या लोगे। हुजूर निर्ख़ तो तय है, कोई व्हाइटवे की दुकान तो है नहीं कि साल में चार बार सेल हो। निर्ख़ से हमारी मज़दूरी चुका दो और दुआए लो। यों तो हुजूर मालिक है, चाहें एक बार कुछ न दें मगर सरकार, औरतें एक रुपए का काम हो तो आठ ही आना देती हैं। हुजूर हम तो साहब लोगों का काम करते हैं। शरीफ़ हमेशा शरीफ रहते हैं ओर हुजूर औरत हर जगह औरत ही रहेंगी। एक तो पर्दे के बहाने से हम लोग हटा दिए जाते हैं। इक्के-तांगे में दर्जनों सवारियाँ और बच्चे बैठ जाते हैं। एक बार इक्के की कमानी टूटी तो उससे एक न दो पूरी तेरह औरतें निकल आयीं। मैं गरीब आदमी मर गया। हुजूर सबको हैरत होती है कि किस तरह ऊपर-नीचे बैठ लेती हैं कि कैंची मारकर बैठती हैं। ताँगे में भी जान नहीं बचती। दोनों घुटनों पर एक-एक बच्चा बैठा लेती हैं और उनके ऊपर एक-एक और, और उन्हीं में से एक नन्हें बच्चे को भी ले लेती है। इस तरह हुजूर तांगे के अन्दर सर्कस का-सा नक्शा हो जाता है। इस पर भी पूरी-पूरी मज़दूरी यह देना जानती ही नहीं। पहले तो पर्दे का ज़ोर था। मर्दों से बातचीत हुई और मजदूरी मिल गयी। जब से नुमाइश हुई, पर्दा उखड़ गया और औरतें बाहर आने-जानें लगीं। हम ग़रीबों का सरासर नुक़सान होता है। हुजूर हमारा भी अल्लाह मालिक है। साल में मैं भी बराबर हो रहता हूँ। सौ सुनार की तो एक लोहार की भी हो जाती है। पिछले महीने दो घंटे सवारी के बाद आठ आने पैसे देकर बी अन्दर भागीं। मेरी निगाह जो ताँगे पर पड़ी तो क्या देखता हूँ कि एक सोने का झुमका गिरकर रह गया। मैं चिल्लाया, माई यह क्या, तो उन्होंने कहा अब एक हब्बा और न मिलेग और दरवाज़ा बन्द। मैं दो-चार मिनट तक तो तकता रह गया मगर फिर वापस चला आया। मेरी मजूदरी माई के पास रह गई और उनका झुमका मेरे पास।

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