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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


स्त्री की बाँछें खिल गई, बोली– अब मैं तुम्हें मान गयी, अवश्य चलेगी तुम्हारी वैद्यकी, अब मुझे कोई संदेह नहीं रहा। मगर गरीबों के साथ यह मंत्र न चलाना नहीं तो धोखा खाओगे।

साल भर गुज़र गया।

भिषगाचार्य पण्डित मोटेराम जी शास्त्री की लखनऊ में धूम मच गई। अलंकारों का ज्ञान तो उन्हें था ही, कुछ गा-बजा भी लेते थे। उस पर गुप्त रोगों के विशेषज्ञ, रसिको के भाग्य जागे। पण्डित जी उन्हें कवित्त सुनाते, हँसाते, और बलकारक औषधियां खिलाते, और वह रईसों में, जिन्हें पुष्टिकारक औषधियों की विशेष चाह रहती है, उनकी तारीफों के पुल बाँधते। साल ही भर में वैद्यजी का वह रंग जमा, कि बायद व शायद गुप्त रोगों के चिकित्सक लखनऊ में एकमात्र वही थे। गुप्त रूप से चिकित्सा भी करते। विलासिनी विधवा रानियों और शौक़ीन अदूरदर्शी रईसों में आपकी ख़ूब पूजा होने लगी। किसी को अपने सामने समझते ही न थे।

मगर स्त्री उन्हें बराबर समझाया करती कि रानियों के झमेले में न फसो, नहीं एक दिन पछताओगे।

मगर भावी तो होकर ही रहती है, कोई लाख समझाये-बुझाये। पण्डितजी के उपासकों में बिड़हल की रानी भी थीं। राजा साहब का स्वर्गवास हो चुका था, रानी साहिबा न जाने किस जीर्ण रोग से ग्रस्त थीं। पण्डितजी उनके यहाँ दिन में पाँच-पाँच बार जाते। रानी साहिबा उन्हें एक क्षण के लिए भी अपने पास से हटने न देना चाहती थीं। पण्डितजी के पहुँचने में ज़रा भी देर हो जाती तो बेचैन हो जातीं, एक मोटर नित्य उनके द्वार पर खड़ी रहती थी। अब पण्डित जी ने ख़ूब केचुल बदली थी। तंज़ेब की अचकन पहनते, बनारसी साफ़ा बाँधते और पम्प जूता डाटते थे। मित्रगण भी उनके साथ मोटर पर बैठकर दनदनाया करते थे। कई मित्रों को रानी साहिबा के दरबार में नौकर रखा दिया। रानी साहिबा भला अपने मसीहा की बात कैसी टालती।

मगर चर्ख़े जफ़ाकार और ही षड्यन्त्र रच रहा था।

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