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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


एक दिन पण्डितजी रानी साहिबा की गोरी-गोरी कलाई पर एक हाथ रखे नब्ज देख रहे थे, और दूसरे हाथ से उनके हृदय की गति की परिक्षा कर रहे थे कि इतने में कई आदमी सोटै लिए हुए कमरे में घुस आये और पण्डितजी पर टूट पड़े। रानी ने भागकर दूसरे कमरे की शरण ली और किवाड़ बन्द कर लिये। पण्डितजी पर बेभाव पड़ने लगी। यों तो पण्डितजी भी दमख़म के आदमी थे, एक गुप्ती सदैव साथ रखते थे। पर जब धोखे में कई आदमियों ने धर दबाया तो क्या करते? कभी इसका पैर पकड़ते कभी उसका। हाय-हाय! का शब्द मुँह से निकल रहा था पर उन बेरहमों को उन पर ज़रा भी दया न आती थी, एक आदम ने एक लात जमाकर कहा– इस दुष्ट की नाक काट लो।

दूसरा बोला– इसके मुँह में कालिख और चूना लगाकर छोड़ दो।

तीसरा– क्यों वैद्यजी महाराज, बोलो क्या मंजूर है? नाक कटवाओगे या मुँह में कालिख लगवाओगे?

पण्डित– हाय, हाय, मर गया और जो चाहे करो, मगर नाक न काटो!

एक– अब तो फिर इधर न आवेगा?

पण्डित– भूलकर भी नहीं सरकार। हाय मर गया!

दूसरा– आज ही लखनऊ से रफूरैट हो जाओं नहीं तो बुरा होगा।

पणिडत– सरकार मैं आज ही चला जाऊँगा। जनेऊ की शपथ खाकर कहता हूँ। आप यहाँ मेरी सूरत न देखेंगे।

तीसरा– अच्छा भाई, सब कोई इसे पाँच-पाँच लाते लगाकर छोड़ दो।

पण्डित– अरे सरकार, मर जाऊँगा, दया करो

चौथा– तुम जैसे पाखंडियो का मर जाना ही अच्छा है। हाँ तो शुरू हो।

पंचलत्ती पड़ने लगी, धमाधम की आवाजें आने लगी। मालूम होता था नगाड़े पर चोट पड़ रही है। हर धमाके के बाद एक बार हाय की आवाज़ निकल आती थी, मानों उसकी प्रतिध्वनी हो।

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