कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
पंचलत्ती पूजा समाप्त हो जाने पर लोगों ने मोटेराम जी को घसीटकर बाहर निकाला और मोटर पर बैठाकर घर भेज दिया, चलते-चलते चेतावनी दे दी, कि प्रातःकाल से पहले भाग खड़े होना, नहीं तो और ही इलाज किया जायगा।
मोटेराम जी लँगड़ाते, कराहते, लकड़ी टेकते घर में गए और धम से गिर पड़े चारपाई पर गिर पड़े। स्त्री ने घबराकर पूछा– कैसा जी है? अरे तुम्हारा क्या हाल है? हाय-हाय यह तुम्हारा चेहरा कैसा हो गया!
मोटे०– हाय भगवान, मर गया।
स्त्री– कहाँ दर्द है? इसी मारे कहती थी, बहुत रबड़ी न खाओं। लवणभास्कर ले आऊँ?
मोटे०– हाय, दुष्टों ने मार डाला। उसी चाण्डालिनी के कारण मेरी दुर्गति हुई। मारते-मारते सबों ने भुरकुस निकाल दिया।
स्त्री– तो यह कहो कि पिटकर आये हो। हाँ पिटे तो हो। अच्छा हुआ। हो तुम लातों ही के देवता। कहती थी कि रानी के यहाँ मत आया-जाया करो। मगर तुम कब सुनते थे।
मोटे०– हाय, हाय! रांड, तुझे भी इसी दम कोसने की सूझी। मेरा तो बुरा हाल है और तू कोस रही है। किसी से कह दे, ठेला-वेला लावे, रातों-रात लखनऊ से भाग जाना है। नहीं तो सबेरे प्राण न बचेंगे।
स्त्री– नही, अभी तुम्हारा पेट नहीं भरा। अभी कुछ दिन और यहाँ की हवा खाओ! कैसे मज़े से लड़के पढ़ाते थे, हाँ नहीं तो वैद्य बनने की सूझी। बहुत अच्छा हुआ, अब उम्र भर न भूलोगे। रानी कहाँ थी कि तुम पिटते रहे और उसने तुम्हारी रक्षा न की।
पण्डित– हाय, हाय, वह चुड़ैल तो भाग गई। उसी के कारण! क्या जानता था कि यह हाल होगा, नहीं तो उसकी चिकित्सा ही क्यों करता?
स्त्री– हो तुम तक़दीर के खोटे। कैसी वैद्यकी चल गई थी। मगर तुम्हारी करतूतों ने सत्यनाश मार दिया। आख़िर फिर वही पढौनी करना पड़ी। हो तक़दीर के खोटे।
प्रातःकाल मोटेराम जी के द्वार पर ठेला खड़ा था और उस पर असबाब लद रहा था। मित्रों में एक भी नज़र न आता था। पण्डित जी पड़े कराह रहे थे ओर स्त्री सामान लदवा रही थी।
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