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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ

पर्वत-यात्रा

प्रातःकाल मुं० गुलाबाज़खाँ ने नमाज़ पढ़ी, कपड़े पहने और महरी से किराये की गाड़ी लाने को कहा। शीरी बेगम ने पूछा– आज सबेरे-सबेरे कहाँ जाने का इरादा है?

गुल– ज़रा छोटे साहब को सलाम करने जाना है।

शीरीं– तो पैदल क्यों नहीं चले जाते? कौन बड़ी दूर है।

गुल– जो बात तुम्हारी समझ में न आये, उसमें ज़बान न खोला करो।

शीरीं– पूछती तो हूँ पैदल चले जाने में क्या हरज है? गाड़ीवाला एक रुपये से कम न लेगा।

गुल–  (हँसकर) हुक्काम किराया नहीं देते। उसकी हिम्मत है कि मुझसे किराया माँगे! चालान करवा दूँ।

शीरीं– तुम तो हाकिम भी नहीं हो, तुम्हें वह क्यों ले जाने लगा!

गुल– हाकिम कैसे नहीं हूँ? हाकिम के क्या सींग-पूँछ होती है, जो मेरे नहीं है? हाकिम को दोस्त हाकिम से कम रोब नहीं रखता। अहमक नहीं हूँ कि सौ काम छोड़कर हुक्काम की सलामी बजाया करती हूँ। यही इसी की बरकत है कि पुलिस माल दीवानी के अहलकार मुझे झुक-झुककर सलाम करते हैं, थानेदार ने कल जो सौगात भेजी थी, वह किसलिए? मैं उनका दामाद तो नहीं हूँ। सब मुझसे डरते हैं।

इतने में महरी एक ताँगा लाई। ख़ां साहब ने फौरन साफा बांधा और चले। शीरी ने कहा– अरे, तो पान तो खाते जाओ!

गुल– हाँ, लाओ हाथ में मेहदीं भी लगा दो। अरी नेकबख्त, हुक्काम

के सामने पान खाकर जाना बेअदबी है।

शीरीं– आओगे कब तक? खाना तो यहीं खाओगे!

गुल– तुम मेरे खाने की फ़िक्र न करना, शायद कुँअर साहब के यहाँ चला जाऊँ। कोई मुझे पूछे तो कहला देना, बड़े साहब से मिलने गये हैं।

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