कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
|
325 पाठक हैं |
प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
संयोग से एक जान-पहचान के पण्डितजी मिल गये। उनसे पूछा– क्यों भाई, यह धरना कब तक रहेगा? शाम तो हो गयी।
पण्डितजी ने कहा– इन सिरफिरों को सुबह और शाम से क्या मतलब, जब तक दुकान बन्द न हो जाएगी, यहाँ से न टलेंगे। कहिए, कुछ खरीदने को इरादा है? आप तो रेशमी कपड़ा नहीं खरीदते?
अमरनाथ ने विवशता की मुद्रा बनाकर कहा– मैं तो नहीं खरीदता। मगर औरतों की फ़रमाइश को कैसे टालूँ।
पण्डितजी ने मुस्कराकर कहा– वाह, इससे ज़्यादा आसान तो कोई बात नहीं। औरतों को भी चकमा नहीं दे सकते? सौ हीले-हज़ार बहाने हैं।
अमरनाथ– आप ही कोई हीला सोचिए।
पण्डितजी– सोचना क्या है, यहाँ रात-दिन यही किया करते हैं। सौ-पचास हीले हमेशा जेबों में पड़े रहते हैं। औरत ने कहा, हार बनवा दो। कहा, आज ही लो। दो-चार रोज़ के बाद कहा, सुनार माल लेकर चम्पत हो गया। यह तो रोज़ का धन्धा है भाई। औरतों का काम फ़रमाइश करना है, मर्दो का काम उसे ख़ूबसूरती से टालना है।
अमरनाथ– आप तो इस कला के पण्डित मालूम होते हैं!
पण्डितजी– क्या करें भाई, आबरू तो बचानी ही पड़ती है। सूखा जवाब दें तो शर्मिंदगी अलग हो, बिगड़ें वह अगल से, समझें, हमारी परवाह ही नहीं करते। आबरू का मामला है। आप एक काम कीजिए। यह तो आपने कहा ही होगा कि आजकल पिकेटिंग है?
अमरनाथ– हाँ, यह तो बहाना कर चुका भाई, मगर वह सुनती ही नहीं, कहती है, क्या विलायती कपड़े दुनिया से उठ गये, मुझसे चले हो उड़ने!
पण्डितजी– तो मालूम होता है, कोई धुन की पक्की औरत है। अच्छा तो मैं एक तरकीब बताऊँ। एक खाली कार्ड का बक्स ले लो, उसमें पुराने कपड़े जलाकर भर लो। जाकर कह देना, मैं कपड़े लिये आता था, वालण्टियरों ने छीनकर जला दिये। क्यों, कैसी रहेगी?
|