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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


अमरनाथ– कुछ जँचती नहीं। अजी, बीस एतराज़ करेंगी, कहीं पर्दाफ़ाश हो जाय तो मुफ़्त की शर्मिन्दगी उठानी पड़े।

पण्डितजी– तो मालूम हो गया, आप बोदे आदमी हैं और हैं भी आप कुछ ऐसे ही। यहाँ तो कुछ इस शान से हीले करते हैं कि सच्चाई की भी उसके आगे धूल हो जाय। ज़िन्दगी यही बहाने करते गुज़री और कभी पकड़े न गये। एक तरकीब और है। इसी नमूने का देशी माल ले जाइए और कह दीजिए कि विलायती है।

अमरनाथ– देशी और विलायती की पहचान उन्हें मुझसे और आपसे कहीं ज़्यादा है। विलायती पर तो जल्द विलायती का यक़ीन आयेगा नहीं, देशी की तो बात ही क्या है!

एक खद्दरपोश महाशय पास ही खड़े यह बातचीत सुन रहे थे, बोल उठे–  ए साहब, सीधी-सी तो बात है, जाकर साफ़ कह दीजिए कि मैं विदेशी कपड़े न लाऊँगा। अगर ज़िद करे तो दिन-भर खाना न खाइये, आप सीधे रास्ते पर आ जायेंगी।

अमरनाथ ने उनकी तरफ़ कुछ ऐसी निगाहों से देखा जो कह रही थीं, आप इस कूचे को नहीं जानते और बोले– यह आप ही कर सकते हैं, मैं नहीं कर सकता।

खद्दरपोश– कर तो आप भी सकते हैं लेकिन करना नहीं चाहते। यहाँ तो उन लोगों में से हैं कि अगर विदेशी दुआ से मुक्ति भी मिलती हो तो उसे ठुकरा दें।

अमरनाथ– तो शायद आप घर में पिकेटिंग करते होंगे?

खद्दरपोश– पहले घर में करके तब बाहर करते हैं भाई साहब।

खद्दरपोश साहब चले गये तो पण्डितजी बोले– यह महाशय तो तीसमारख़ां से भी तेज़ निकले। अच्छा तो एक काम कीजिए। इस दुकान के पिछवाड़े एक दूसरा दरवाज़ा है, ज़रा अँधेरा हो जाय तो उधर चले जाइएगा, दायें-बायें किसी की तरफ़ न देखिएगा।

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