कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
मालती ने शरारत-भरी नज़रों से देखते हुए कहा-तो यह कहिए आप दिल हथेली पर लिये फिर रहे थे। एक औरत को देखा और उसके कदमों पर चढ़ा दिया!
अमरनाथ– वह उन औरतों में नहीं, जो दिलों की घात में रहती हैं।
मालती– तो कोई देवी होगी?
अमरनाथ– मैं उसे देवी ही समझता हूँ।
मालती– तो आप उस देवी की पूजा कीजिएगा?
अमरनाथ– मुझ जैसे आवारा नौजवान के लिए उस मन्दिर के दरवाज़े बन्द हैं।
मालती– बहुत सुन्दर होगी?
अमरनाथ– न सुन्दर है, न रूपवाली, न ऐसी अदाएँ कुछ, न मधुर भाषिणी, न तन्वंगी। बिलकुल एक मामूली मासूम लड़की है। लेकिन जब मेरे हाथ से उसने साड़ी छीन ली तो मैं क्या कर सकता हूँ। मेरी गैरत ने तो गंवारा न किया कि उसके हाथ से साड़ी छीन लूँ। तुम्हीं इन्साफ करो, वह दिल में क्या कहती?
मालती– तो तुम्हें इसकी ज़्यादा परवाह है कि वह अपने दिल में क्या कहेगी। मैं क्या कहूँगी, इसकी जरा भी परवाह न थी! मेरे हाथ से कोई मर्द मेरी कोई चीज़ छीन ले तो देखूं, चाहे वह दूसरा कामदेव ही क्यों न हो।
अमरनाथ– अब इसे चाहे मेरी कायरता समझो, चाहे हिम्मत की कमी, चाहे शराफ़त, मैं उसके हाथ से न छीन सका।
मालती– तो कल वह साड़ी लेकर आयेगी, क्यों?
अमरनाथ– ज़रूर आयेगी।
मालती– तो जाकर मुँह धो आओ। तुम इतने नादान हो, यह मुझे मालूम न था। साड़ी देकर चले आये, अब कल वह आपको देने आयेगी! कुछ भंग तो नहीं खा गये!
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