कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
अमरनाथ– ख़ैर, इसका इम्तहान कल ही हो जायगा, अभी से क्यों बदगुमानी करती हो। तुम शाम को ज़रा देर के लिए मेरे घर तक चली चलना।
मालती– जिससे आप कहें कि यह मेरी बीवी है!
अमरनाथ– मुझे क्या ख़बर थी कि वह मेरे घर आने के लिए तैयार हो जायगी, नहीं तो और कोई बहाना कर देता।
मालती– तो आपकी साड़ी आपको मुबारक हो, मैं नहीं जाती।
अमरनाथ– मैं तो रोज़ तुम्हारे घर आता हूँ, तुम एक दिन के लिए भी नहीं चल सकतीं?
मालती ने निष्ठुरता से कहा– अगर मौक़ा आ जाय तो तुम अपने को मेरा शौहर कहलाना पसन्द करोगे? दिल पर हाथ रखकर कहना।
अमरनाथ दिल में कट गये, बात बनाते हुए बोले– मालती, तुम मेरे साथ अन्याय कर रही हो। बुरा न मानना, मेरे व तुम्हारे बीच प्यार और मुहब्बत दिखलाने के बावजूद एक दूरी का पर्दा पड़ा था। हम दोनों एक-दूसरे की हालत को समझते थे और इस पर्दे को हटाने की कोशिश न करते थे। यह पर्दा हमारे सम्बन्धों की अनिवार्य शर्त था। हमारे बीच एक व्यापारिक समझौता-सा हो गया। हम दोनों उसकी गहराई में जाते हुए डरते थे। नहीं, बल्कि मैं डरता था और तुम जान-बूझकर न जाना चाहती थी। अगर मुझे विश्वास हो जाता कि तुम्हें जीवन-सहचरी बनाकर मैं वह सब कुछ पा जाऊँगा जिसका मैं अपने को अधिकारी समझता हूँ तो मैं अब तक कभी का तुमसे इसकी याचना कर चुका होता! लेकिन तुमने कभी मेरे दिल में यह विश्वास पैदा करने की परवाह न की। मेरे बारे में तुम्हें यह शक है, मैं नहीं कह सकता, तुम्हें यह शक करने का मैं ने कोई मौक़ा नहीं दिया और मैं कह सकता हूँ कि मैं उससे कहीं बेहतर शौहर बन सकता हूँ जितनी तुम बीवी बन सकती हो। मेरे लिए सिर्फ़ एतवार की ज़रूरत है और तुम्हारे लिए ज़्यादा वज़नी और ज़्यादा भौतिक चीज़ों की। मेरी स्थायी आमदनी पाँच सौ से ज़्यादा नहीं, तुमको इतने में सन्तोष न होगा। मेरे लिए सिर्फ़ इस इत्मीनान की ज़रूरत है कि तुम मेरी और सिर्फ़ मेरी हो। बोलो मंजूर है।
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