कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
ख़ैर, तीन-चार दिन के बाद एक दिन मैं सुबह के वक़्त तम्बोलिन की दुकान पर गया तो उसने मेरी फरमाइश पूरी करने में ज़्यादा मुस्तैदी न दिखलायी। एक मिनट तक तो पान फेरती रही, फिर अन्दर चली गयी और कोई मसाला लिये हुए निकली। मैं दिल में खुश हुआ कि आज बड़े विधिपूर्वक गिलौरियां बना रही है। मगर अब भी वह सड़क की ओर प्रतीक्षा की आँखों से ताक रही थी कि जैसे दुकान के सामने कोई ग्राहक ही नहीं और ग्राहक भी कैसा, जो उसका पड़ोसी है और दिन में बीसियों ही बार आता है! तब तो मैंने जरा झुंझलाकर कहा– मैं कितनी देर से खड़ा हूँ, कुछ इसकी भी ख़बर है?
तम्बोलिन ने क्षमा-याचना के स्वर में कहा– हाँ बाबू जी, आपको देर तो बहुत हुई लेकिन एक मिनट और ठहर जाइए। बुरा न मानिएगा बाबू जी, आपके हाथ की बोहनी अच्छी नहीं है। कल आपकी बोहनी हुई थी, दिन में कुल छः आने की बिक्री हुई। परसों भी आप ही की बोहनी थी, आठ आने के पैसे दुकान में आये थे। इसके पहले दो दिन पंडित जी की बोहनी हुई थी, दोपहर तक ढाई रुपये आ गये थे। कभी किसी का हाथ अच्छा नहीं होता बाबू जी!
मुझे गोली-सी लगी। मुझे अपने भाग्यशाली होने का कोई दावा नहीं है, मुझसे ज़्यादा अभागे दुनिया में कम होंगे। इस साम्राज्य का अगर मैं बादशाह नहीं, तो कोई ऊँचा मंसबदार ज़रूर हूँ। लेकिन यह मैं कभी गवारा नहीं कर सकता कि नहूसत का दाग़ बर्दाश्त कर लूं। कोई मुझसे बोहनी न कराये, लोग सुबह को मेरा मुँह देखना अपशकुन समझे, यह तो घोर कलंक की बात है।
मैंने पान तो ले लिया लेकिन दिल में पक्का इरादा कर लिया कि इस नहूसत के दाग को मिटाकर ही छोडूंगा। अभी अपने कमरे में आकर बैठा ही था कि मेरे एक दोस्त आ गये। बाज़ार साग-भाजी लेने जा रहे थे। मैंने उनसे अपनी तम्बोलिन की ख़ूब तारीफ़ की। वह महाशय जरा सौंदर्य-प्रेमी थे और मज़ाकिया भी। मेरी ओर शरारत-भरी नज़रों से देखकर बोले– इस वक़्त तो भाई, मेरे पास पैसे नहीं हैं और न अभी पानों की ज़रूरत ही है। मैंने कहा– पैसे मुझसे ले लो।
‘हाँ, यह मंजूर है, मगर कभी तकाजा मत करना।’
‘यह तो टेढ़ी खीर है।’
‘तो क्या मुफ्त में किसी की आँख में चढ़ना चाहते हो?’
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