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गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :467
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8464

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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ


मजबूर होकर उन हज़रत को एक ढोली पान के दाम दिये। इसी तरह जो मुझसे मिलने आया, उससे मैंने तम्बोलिन का बखान किया। दोस्तों ने मेरी ख़ूब हंसी उड़ायी, मुझ पर ख़ूब फबतियां कसीं, मुझे ‘छिपे रुस्तम’, ‘भगत जी’ और न जाने क्या-क्या नाम दिये गये लेकिन मैंने सारी आफ़तें हँसकर टालीं। यह दाग़ मिटाने की मुझे धुन सवार हो गयी।

दूसरे दिन जब मैं तम्बोलिन की दुकान पर गया तो उसने फौरन पान बनाये और मुझे देती हुई बोली—बाबू जी, कल तो आपकी बोहनी बहुत अच्छी हुई, कोई साढ़े तीन रुपये आये। अब रोज़ बोहनी करा दिया करो।

तीन-चार दिन लगातार मैंने दोस्तों से सिफारिशें कीं, तम्बोलिन की स्तुति गायी और अपनी गिरह से पैसे खर्च करके सुर्खरुई हासिल की। लेकिन इतने ही दिनों में मेरे खजाने में इतनी कमी हो गयी कि खटकने लगी। यह स्वांग अब ज़्यादा दिनों तक न चल सकता था, इसलिए मैंने इरादा किया कि कुछ दिनों उसकी दुकान से पान लेना छोड़ दूं। जब मेरी बोहनी ही न होगी, तो मुझे उसकी बिक्री की क्या फिक्र होगी। दूसरे दिन हाथ-मुँह धोकर मैंने एक इलायची खा ली और अपने काम पर लग गया। लेकिन मुश्किल से आधा घण्टा बीता हो, कि किसी की आहट मिली। आँख ऊपर को उठाता हूँ तो तम्बोलिन गिलौरियां लिये सामने खड़ी मुस्करा रही है। मुझे इस वक़्त उसका आना जी पर बहुत भारी गुज़रा लेकिन इतनी बेमुरौवती भी तो न हो सकती थी कि दुत्कार दूं। बोला– तुमने नाहक तकलीफ़ की, मैं तो आ ही रहा था।

तम्बोलिन ने मेरे हाथ में गिलौरियां रखकर कहा– आपको देर हुई तो मैंने कहा मैं ही चलकर बोहनी कर आऊं। दुकान पर ग्राहक खड़े हैं, मगर किसी की बोहनी नहीं की।

क्या करता, गिलौरिया खायीं और बोहनी करायी। जिस चिन्ता से मुक्ति पाना चाहता था, वह फिर फन्दे की तरह गर्दन पर चिमटी हुई थी। मैंने सोचा था, मेरे दोस्त दो-चार दिन तक उसके यहाँ पान खायेंगे तो आपही उससे हिल जायेंगे और मेरी सिफारिश की ज़रूरत न रहेगी। मगर तम्बोलिन शायद पान के साथ अपने रूप का भी कुछ मोल करती थी इसलिए एक बार जो उसकी दुकान पर गया, दुबारा न गया। एक-दो रसिक नौजवान अभी तक आते थे, वह लोग एक ही हँसी में पान और रूप-दर्शन दोनों का आनन्द उठाकर चलते बने थे। आज मुझे अपनी साख बनाये रखने के लिए फिर पूरे डेढ़ रुपये खर्च करने पड़े, बधिया बैठ गयी।

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