कहानी संग्रह >> गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह) गुप्त धन-2 (कहानी-संग्रह)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द की पच्चीस कहानियाँ
मैंने त्योरी चढ़ाते हुए कहा– आज ही तो इस घर में आया हूँ, आज ही छोड़ कैसे सकता हूँ। पेशगी किराया दे चुका हूँ।
तम्बोलिन ने बड़ी लुभावनी मुस्कराहट के साथ कहा– दस ही रुपये तो दिये हैं, आपके लिए दस रुपये कौन बड़ी बात है यही समझ लीजिए कि आप न चले तो मैं उजड़ जाऊंगी। ऐसी अच्छी बोहनी वहाँ और किसी की नहीं है। आप नहीं चलेंगे तो मैं ही अपनी दुकान यहाँ उठा लाऊँगी।
मेरा दिल बैठ गया। यह अच्छी मुसीबत गले पड़ी। कहीं सचमुच चुड़ैल अपनी दुकान न उठा लाये। मेरे जी में तो आया कि एक फटकार बताऊं पर ज़बान इतनी बेमुरौवत न हो सकी। बोला– मेरा कुछ ठीक नहीं है, कब तक रहूँ, कब तक न रहूँ। आज ही तबादला हो जाय तो भागना पड़े। तुम न इधर की रहो, न उधर की।
उसने हसरत-भरे लहजे में कहा– आप चले जायेंगे तो मैं भी चली जाऊँगी। अभी आज तो आप जाते नहीं।
‘मेरा कुछ ठीक नहीं है।’
‘तो मैं रोज़ यहाँ आकर बोहनी करा लिया करूँगी।’
‘इतनी दूर रोज़ आओगी?’
‘हाँ चली आऊँगी। दो मील ही तो है। आपके हाथ की बोहनी हो जायेगी। यह लीजिए गिलौरियां लायी हूँ। बोहनी तो करा दीजिए।’
मैंने गिलौरियां लीं, पैसे दिये और कुछ गश की-सी हालत में ऊपर जाकर चारपाई पर लेट गया।
अब मेरी अक्ल कुछ काम नहीं करती कि इन मुसीबतों से क्यों कर गला छुड़ाऊं। तब से इसी फिक्र में पड़ा हुआ हूँ। कोई भागने की राह नज़र नहीं आती। सुर्खरू भी रहना चाहता हूँ, बेमुरौवती भी नहीं करना चाहता और इस मुसीबत से छुटकारा भी पाना चाहता हूँ। अगर कोई साहब मेरी इस करुण स्थिति पर मुझे ऐसा कोई उपाय बतला दें तो जीवन-भर उनका कृतज्ञ रहूँगा।
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