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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

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महापुरुषों की जीवनियाँ


यह वह समय था, जब आधुनिक राजनीति का आरम्भ हुआ था। मुसलमानों ने राजनीति के मैदान में कुछ बड़े कदम उठाए थे। मुसलिम लीग के लक्ष्य में आत्मशासन की माँग सम्मिलित हो रही थी। मुसलिम विश्वविद्यालय का विधान बन रहा था और विश्वविद्यालय में सरकार के अधिकार का प्रश्न सारी जाति का ध्यान अपनी ओर खींच रहा था। तराबलस (ट्रिपोली) और बाबक के युद्धों ने मुसलमानों की अनुभूति को झकझोरकर जगा दिया था और इसके कुछ ही अरसे बाद कानपुर मसजिद की घटना से सारी मुसलिम जाति के भावों में उफान आ गया था। ऐसे समय में मौलाना की शक्तिशाली लेखनी ने ‘मुसलिम गज़ट’ के पृष्ठों पर जो सपाटे भरे, जो रचना-चमत्कार दिखाया वह उर्दू साहित्य की अति मूल्यवान निधि है। सच यह है कि उस ज़माने में मौलाना की करामाती क़लम ने सारी मुसलिम जाति की मनोवृत्ति में स्पष्ट क्रान्ति उत्पन्न कर दी।

‘मुसलिम गजट’ की धूम उस समय देश के कोने-कोने में मच रही थी। अन्त में अधिकारियों की दमन नीति के कारण मौलाना को ‘मुसलिम गजट’ का संपादन छोड़ना पड़ा, पर शीघ्र ही ‘ज़मींदार’ के प्रधान सम्पादक के पद पर बुला लिये गए। उस समय ‘ज़मींदार’ हिन्दुस्तान का सबसे अधिक छपने और बिकनेवाला अखबार था। अँगरेजी अख़बारों में भी केवल एक ‘स्टेट्स्मैन’ ऐसा था, जिसका प्रचार ‘ज़मींदार’ से अधिक था। शेष सब पत्र उसके पीछे थे। मौलाना के ज़माने में ‘ज़मीदार’ बड़ी शान से निकलता रहा। अन्त में जब उसका छापाखाना ज़ब्त हो गया, तो मौलाना अपने घर चले गये।

अमर साहित्य-सेवा
हैदराबाद में उस्मानिया यूनिवर्सिटी स्थापित होने के पहले एक महकमा दारुल तर्जुमा (अनुवाद विभाग) के नाम से स्थापित किया गया था कि विश्वविद्यालय के लिए पाठ्य ग्रन्थों का भाषान्तर करे। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई पारिभाषिक शब्दों के भाषान्तर में उपस्थित हुई। अनुवादकों के समूह अपनी-अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न मत रखते थे। कोई निर्णायक सिद्धान्त दिखाई न देता था। मौलाना सलीम चूँकि इस प्रश्न पर बहुत अरसे से सोच-विचार रहे थे, इसलिए बुलाए गए। हैदराबाद पहुँचकर वह परिभाषा की कमेटियों में सम्मिलित हुए और परिभाषा-निर्माण के विषय पर एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा। इस पुस्तक में मौलाना ने सिद्ध किया है कि उर्दू आर्यकुल की भाषा है। जो लोग अरबी व्याकरण के अनुसार परिभाषाएँ बनाते हैं, वह वस्तुतः इस भाषा की प्रकृति के विरुद्ध कार्य करते हैं। इस बात को आपने बहुत ही सबल युक्ति-प्रमाणों से सिद्ध किया है। परंतु पुराणपन्थी अनुवादकों ने इस पर चारों ओर यह बात फैला दी कि मौलाना अरबी के विरोधी और हिन्दी के पक्षपाती हैं।

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