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कलम, तलवार और त्याग-2 (जीवनी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8502

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महापुरुषों की जीवनियाँ


असल बात यह है कि मौलाना सलीम प्रौढ़ और रससिद्ध कवि होने पर भी कवि कहलाने में सकुचाते थे और अपनी रचनाएँ प्रकाशित कराने में सदा आनाकानी किया करते थे। मित्रों के बहुत आग्रह करने पर भी अपना शेष काव्य प्रकाशित कराने को तैयार नहीं हुए। यह अप्रकाशित काव्य हैदराबाद के प्रवास काल से सम्बन्ध रखता है। उन दिनों वहाँ हर महीने एक मुशायरा हुआ करता था, उसमें बड़े-बड़े प्रौढ़ कवि सम्मिलित होते थे। मित्रों के आग्रह से मौलाना भी उसमें सम्मिलित होने लगे और मित्रों तथा शिष्यों ने उन रचनाओं को मासिकों में छपने के लिए बाहर भेजना शुरू कर दिया। गज़लों के अतिरिक्त अब उनकी स्थायी रचनाएँ भी पत्रों में प्रकाशित होने लगीं। जब मौलाना हाली जीवित थे, तो मौलाना ने अकसर अपनी रचनाएँ सुनायीं, पर इसलाह कभी नहीं ली। मौलाना हाली उनके कहने के ढंग और भावों की सुन्दरता पर अक्सर घण्टों झूमा करते थे। कहा करते थे कि तुम तो शायरी के छिपे देवता हो।

मौलाना हाली ने अपने ‘मुकद्दमए शेरो शायरी’ में उर्दू कविता के ख़ासकर ग़ज़लगोई के जो दोष बताए हैं, मौलाना ने उनको त्याग दिया था। ग़ज़ल से जो भाव निबद्ध करते थे, वह प्रायः राजनीति के सम्बन्धी होते थे, जो उपमा और रूपक के पर्दे में व्यक्त किए जाते थे। समझनेवाले उन इशारों को समझते और मजे लेते थे। मौलाना के काव्य की एक बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने मुसलमानों के सांप्रदायिक भेद को कभी प्रकट नहीं किया। हिन्दू मुसलमानों को सदा मेल का उपदेश देते रहे। कोई बात, जो किसी इसलामी फ़िरके या हिंदुओं के दिल को चोट पहुँचाती हो, कभी उनकी क़लम से नहीं निकली आपने हिन्दुओं के इतिहास और साहित्य का उसी सम्मान के साथ उल्लेख किया है, जिस प्रकार एक सुसंस्कृत कवि को करना चाहिए।

स्थायी रचनाएँ
मौलाना की स्थायी रचनाएँ दो प्रकार की हैं। एक वह जो हृदय की स्फूर्ति से लिखी हैं, दूसरी वह जो अँगरेजी कवियों की रचनाओं के आधार पर हैं। पहले प्रकार की रचनाओं में कुछ ऐसी हैं, जो रचना-शैली, नए पुराने रूपकों की उत्प्रेक्षाओं के सुन्दर प्रयोग और सूक्ष्मगंभीर भावों के विचार से निस्संदेह ‘मास्टरपीस’ कही जाने योग्य हैं। दूसरे प्रकार की रचनाओं में भी उन्होंने कवित्व के प्राण को सुरक्षित रखा है, शाब्दिक अनुवाद का कभी यत्न नहीं किया। अतः ये रचनाएँ भी बिलकुल ऐसी हैं, जैसी अपने हृदय की प्रेरणा से लिखी जाती हैं।

मौलाना सलीम सदा इस बात का यत्न करते थे कि शेर में कोई न कोई नवीनता अवश्य हो कहने का ढंग निराला हो या कोई उपमा उत्प्रेक्षा हो, या कोई नया भाव व्यक्त किया गया हो। कोई भी नवीनता न हो, तो वह उस शेर को पसन्द न करते थे। उनके कवित्व में अध्यात्म तत्व भी हैं और दर्शन भी। अध्यात्म का अंश उस सत्संग का सुफल है, जो बचपन में हजरत मौलाना सैयद ग़ौसअली साहब का प्राप्त हुआ था और दर्शन का पुट नव्य ज्ञान का प्रसाद है। उनकी ग़ज़लें प्रायः सभी बढ़िया और सुन्दर हैं; पर वे ग़ज़लें सर्वोत्तम हैं, जो हैदराबाद के मुशायरे में पढ़ी गईं। वे प्रायः युवकों को लक्ष्य कर लिखी गई हैं जिनकी प्रगतिशीलता को वह ग़ज़लों में भी उकसाते रहते थे।

मौलाना धार्मिक कट्टरपन और पक्षपात से मुक्त थे। उनके विचार अध्यात्म और दर्शन के प्रभाव से स्वतन्त्र प्रकार के थे। इस स्वतंत्रता की झलक उनकी कविता में जगह-जगह दिखाई देती है।

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