उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमरकान्त ने उसे शान्त करने के इरादे से कहा–‘जो कुछ तुम चाहती हो, वह सब होगा। नतीजा कुछ भी हो, पर अपनी तरफ़ से कोई बात उठा न रखेंगे। मैं ज़रा प्रो. शान्तिकुमार के पास जाता हूँ। तुम जाकर आराम से लेटो।’
‘मैं भी अम्माँ के पास जाऊँगी। तुम मुझे उधर छोड़कर चले जाना।’
अमर ने आग्रहपूर्वक कहा–‘तुम चलकर शान्ति से लेटो, मैं अम्माँ से मिलता चला जाऊंगा।’
सुखदा ने चिढ़कर कहा–‘ऐसी दशा में जो शान्ति से लेटे वह मृतक है। इस देवी के लिए तो मुझे प्राण भी देने पड़े, तो ख़ुशी से दूँ। अम्माँ से मैं जो कहूँगी, वह तुम नहीं कह सकते। नारी के लिए नारी के हृदय में जो तड़प होगी, वह पुरुषों के हृदय में नहीं हो सकती। मैं अम्माँ से इस मुकदमे के लिए पाँच हज़ार से कम न लूँगी। मुझे उनका धन न चाहिए। चंदा मिले तो वाह-वाह, नहीं तो उन्हें खुद निकल आना चाहिए। ताँगा बुलवा लो।’
अमरकान्त को आज ज्ञात हुआ, विलासिनी के हृदय में कितनी वेदना, कितना स्वजाति–प्रेम, कितना उत्सर्ग है।
ताँगा आया और दोनों रेणुका देवी से मिलने चले।
१०
तीन महीने तक सारे शहर में हलचल रही। रोज हज़ारों आदमी सब काम-धन्धे छोड़कर कचहरी जाते। भिखारिन को एक नज़र देख लेने की अभिलाषा सभी को खींच ले जाती। महिलाओं की भी खासी संख्या हो जाती थी। भिखारिन ज्यों ही लारी से उतरती ‘जय-जय की गगनभेदी ध्वनि और पुष्प-वर्षा होने लगती। रेणुका और सुखदा तो कचहरी के उठने तक वहीं रहतीं।
जिला मजिस्ट्रेट ने मुकदमें को जजी में भेज दिया और रोज पेशियाँ होने लगीं। पंच नियुक्त हुए। इधर सफ़ाई के वकीलों की एक फ़ौज तैयार की गयी। मुक़दमें को सबूत की ज़रूरत न थी। अपराधिनी ने अपराध स्वीकार ही कर लिया था। बस, यही निश्चय करना था कि जिस वक़्त उसने हत्या की उस वक़्त वह होश में थी या नहीं? शहादतें कहती थीं, वह होश में न थी। डॉक्टर कहता था, उसमें अस्थिरचित्त होने के कोई चिहृ नहीं मिलते। डॉक्टर साहब बँगाली थे। जिस दिन वह बयान देकर निकले, उन्हें इतनी धिक्कारें मिलीं कि बेचारे को घर पहुँचना मुश्किल हो गया। ऐसे अवसरों पर जनता की इच्छा के विरुद्ध किसी ने चूँ किया और उसे धिक्कार मिली। जनता आत्मनिश्चय के लिए कोई अवसर नहीं देती। उसका शासन किसी तरह की नर्मी नहीं करता।
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