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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


रेणुका नगर की रानी बनी हुई थीं। मुक़दमें की पैरवी का सारा भार उनके ऊपर था। शान्तिकुमार और अमरकान्त उनकी दाहिनी और बायीं भुजाएँ थे। लोग आ-आकर खुद चन्दा दे जाते। यहाँ तक कि लाला समरकान्त भी गुप्त रूप से सहायता कर रहे थे।

एक दिन अमरकान्त ने पठानिन को कचहरी में देखा। सकीना भी चादर ओढ़े उसके साथ थी।

अमरकान्त ने पूछा–‘बैठने को कुछ लाऊँ माताजी? आज आपसे भी न रहा गया।’

पठानिन बोली–‘मैं तो रोज आती हूँ बेटा, तुमने मुझे न देखा होगा। यह लड़की मानती ही नहीं।’

अमरकान्त को रूमाल की याद आ गयी और वह अनुरोध भी याद आया जो बुढ़िया ने उससे किया था, इस हलचल में वह कालेज तक तो जा न पाता था, उन बातों का कहाँ से ख्याल रखता।

बुढ़िया ने पूछा–मुक़दमें में क्या होगा बेटा? वह औरत छूटेगी कि सजा हो जायेगी? सकीना उसके और समीप आ गयी।

अमर ने कहा–‘ कुछ कह नहीं सकता माता। छूटने की कोई उम्मीद नहीं मालूम होती; मगर हम प्रीवी कौंसिल तक जायेंगे।’

पठानिन बोली–‘ऐसे मामले में भी जज सजा कर दे, तो अन्धेरे है।’

अमरकान्त ने आवेश में कहा–‘उसे सजा मिले चाहे रिहाई हो, पर उसने दिखा दिया कि भारत की दरिद्र औरतें भी अपनी आबरू की कैसे रक्षा कर सकती हैं।’

सकीना ने पूछा तो अमर से, पर दादी की तरफ़ मुँह करके–‘हम दर्शन कर सकेंगे अम्माँ?’

अमर ने तत्परता से कहा–‘हाँ, दर्शन करने में क्या है? चलो पठानिन, मैं तुम्हे अपने घर की स्त्रियों के साथ बैठा दूँ। वहाँ तुम उन लोगों से बातें भी कर सकोगी।’

पठानिन बोली–‘हाँ, बेटा, पहले ही दिन से यह लड़की मेरी जान खा रही है। तुमसे मुलाकात ही न होती थी कि पूछूँ। कुछ रूमाल बनाए थे। उसके दो रुपये मिले। वह दोनों रुपये तभी से संचित कर रखे हुए हैं। चन्दा देगी। न हो तो तुम्हीं ले लो बेटा, औरतों को दो रुपये देते हुए शर्म आयेगी।’

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