उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सुखदा के कटाक्ष किया–‘जब जज साहब भी ऐसा समझें।’
‘मैं तो आज उनसे साफ़-साफ़ कह दूँगी कि अगर तुमने इस औरत को सजा दी, तो मैं समझूँगी, तुमने अपने प्रभुओं का मुँह देखा।’
सहसा जज साहब ने खड़े होकर पंचों को थोड़े शब्दों में इस मुक़दमें में अपनी सम्मति देने का आदेश दिया और सुख कुछ काग़जों को उलटने-पलटने लगे! पंच लोग पीछेवाले कमरे में जाकर थोड़ी देर बातें करते रहे और लौटकर अपनी सम्मति दे दी। उनके विचार में अभियुक्ता निरपराध थी। जज साहब ज़रा–सा मुस्कराए और कल फै़सला सुनाने का वादा करके उठ खड़े हुए।
११
सारे शहर में कल के लिए दोनों तरह की तैयारियाँ होने लगीं–हाय-हाय की भी और वाह-वाह की भी। काली झण्डियाँ भी बनीं और फलों की डालियाँ भी जमा की गयीं, पर आशावादी कम थे, निराशावादी ज़्यादा। गोरों का ख़ून हुआ है। जज ऐसे मामले में भला क्या इन्साफ़ करेगा, क्या बचा हुआ है। शान्तिकुमार और सलीम तो खुल्लम-खुल्ला कहते फिरते थे कि जज ने फाँसी की सज़ा दे दी। कोई ख़बर लाता था–फ़ौज की एक पूरी रेजीमेंट कल अदालत में तलब की गयी है। कोई फ़ौज तक न जाकर, सशस्त्र पुलिस तक ही रह जाता था। अमरकान्त को फ़ौज के बुलाए जाने का विश्वास था।
दस बजे रात को अमरकान्त सलीम के घर पहुँचा। अभी यहाँ घण्टे ही भर पहले आया था। सलीम ने चिन्तित होकर पूछा–‘कैसे लौट पड़े भाई, क्या कोई नयी बात हो गयी?’
अमर ने कहा–‘एक बात सूझ गयी। मैंने कहा, तुम्हारी राय भी ले लूँ। फाँसी की सज़ा पर ख़ामोश रह जाना, तो बुज़दिली है। किचलू साहब (जज) को सबक़ देने की ज़रूरत होगी, ताकि उन्हें भी मालूम हो जाए कि नौजवान भारत इन्साफ़ का ख़ून देखकर ख़ामोश नहीं रह सकता। सोशल बायकाट कर दिया जाए। उनके महाराज को मैं रख लूँगा, कोचनैन को तुम रख लेना। बचा को पानी भी न मिले। जिधर से निकले, उधर तालियाँ बजें।
सलीम ने मुस्कराकर कहा–‘सोचते-सोचते सोची भी तो वही बनियों की बात।’
‘मगर और कर ही क्या सकते हो?’
‘इस बायकाट से क्या होगा? कोतवाली को लिख देगा। बीस महाराज और कोचवान हाजिर कर दिए जायेंगे?’
‘दो-चार दिन परेशान तो होंगे हजरत!’
|