उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘बिलकुल फ़जूल–सी बात है। अमर सबक़ ही देना है। तो ऐसा सबक़ दो, जो कुछ दिन हज़रत को याद रहे। एक आदमी ठीक कर लिया जाए तो ऐन उस वक़्त जब हज़रत फैसला सुनाकर बैठने लगें, एक जूता ऐसे निशाने से चलाए कि मुँह पर लगे।’
अमरकान्त ने क़हक़हा मारकर कहा–ब़ड़े मसखरे हो यार!
‘इसमें मसखरेपन की क्या बात है?’
‘तो क्या सचमुच तुम जूते लगवाना चाहते हो?’
‘जी हाँ, और क्या मज़ाक कर रहा हूँ। ऐसे सबक देना चाहता हूँ कि फिर हज़रत यहाँ मुँह न दिखा सकें।’
अमरकान्त ने सोचा–कुछ भद्दा काम तो है ही, पर बुराई क्या है? लातों के देवता कहीं बातों से मानते हैं? बोला–‘अच्छी बात है, देखी जाएगी, पर ऐसा आदमी कहाँ मिलेगा?’
सलीम ने उसकी सरलता पर मुस्कराकर कहा–‘आदमी तो ऐसे मिल सकते हैं, जो राह चलते गर्दन काट लें। या कौन-सी बड़ी बात है। किसी बदमाश को दो सौ रुपये दे दो, बस मैंने तो काले खाँ को सोचा है।’
‘अच्छा वह! उसे तो मैं एक बार अपनी दुकान पर फटकार चुका हूँ।’
‘तुम्हारी हिमाक़त थी। ऐसे दो-चार आदमियों को मिलाए रहना चाहिए। वक़्त पर इनसे बड़ा काम निकलता है। मैं और सब बातें तय कर लूँगा, पर रुपये कि फ़िक्र तुम करना। मैं तो अपना बजट पूरा कर चुका।’
‘अभी तो महीना शुरू हुआ है भाई।’
‘जी हाँ, यहाँ शुरू ही में खत्म हो जाते हैं। फिर नोच-खसोट पर चलती है। कहीं अम्माँ से दस रुपये उड़ा लाए, कहीं अब्बाजान से किताब के बहाने से दस-पाँच ऐंठ लिए। पर दो सौ की थैली जरा मुश्किल से मिलेगी। हाँ, तुम इन्कार कर दोगे तो मजबूर होकर अम्मा का गला दबाऊँगा।’
अमर ने कहा–‘रुपये का ग़म नहीं। मैं जाकर लिए आता हूँ।’
सलीम ने इतनी रात गये रुपये लाना मुनासिब न समझा। बात कल के लिए उठा रखी गयी। प्रातःकाल अमर लाएगा और काले खाँ से बातचीत पक्की कर ली जाएगी।
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