उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमर घर पहुँचा तो साढ़े दस बज रहे थे। द्वार पर बिजली जल रही थी। बैठक में लालाजी दो-तीन पण्डितों के साथ बैठे बातें कर रहे थे। अमरकान्त को शंका हुई, इतनी रात गये यह जग-जग किस बात के लिए है। कोई नया शिगूफ़ा तो नहीं खिला।
लालाजी ने उसे देखते ही डाँटकर कहा–‘तुम कहाँ घूम रहे हो जी! दस बजे के निकले-निकले आधी रात को लौटे हो। ज़रा जाकर लेडी डॉक्टर को बुला लो, वही जो बड़े अस्पताल में रहती है। अपने साथ लिए हुए आना।’
अमरकान्त ने डरते-डरते पूछा–‘क्या किसी की तबीयत...’
समरकान्त ने बात काटकर कड़े स्वर में कहा–‘क्या बक-बक करते हो, मैं जो कहता हूँ, वह करो। तुम लोगों ने तो व्यर्थ ही संसार में जन्म लिया। यह मुक़दमा क्या हो गया सारे घर के सिर जैसे भूत सवार हो गया। झटपट जाओ।’
अमर को फिर कुछ पूछने का साहस न हुआ। घर में भी न जा सका, धीरे से सड़क पर आया और बाइसिकल पर बैठ ही रहा था कि भीतर से सिल्लो निकल आयी। अमर को देखते ही बोली–‘अरे भैया, सुनो कहाँ जाते हो? बहूजी बहुत बेहाल हैं, कब से तुम्हें बुला रही हैं। सारी देह पसीने से तर हो रही है। देखो भैया, मैं सोने की कण्ठी लूँगी। पीछे से हीला–हवाला न करना।’
अमरकान्त समझ गया। बाइसिकल से उतर पड़ा और हवा की भाँति झपटा हुआ अन्दर जा पहुँचा। वहाँ रेणुका, एक दाई, पड़ोस की एक ब्राह्मणी और नैना आँगन में बैठी हुई थीं। बीच में एक ढोलक रखी हुई थी। कमरे में सुखदा प्रसव-वेदना से हाय-हाय कर रही थी।
नैना ने दौड़कर अमर का हाथ पकड़ लिया और रोती हुई बोली–‘तुम कहाँ थे भैया, भाभी बड़ी देर से बेचैन हैं।’
अमर के हृदय में आँसुओं की ऐसी लहर उठी कि वह रो पड़ा। सुखदा के कमरे के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया. पर अन्दर पाँव न रख सका। उसका हृदय फटा जाता था।
सुखदा ने वेदना-भरी आँखों से उसकी ओर देखकर कहा–‘अब नहीं बचूँगी। हाय! पेट में जैसे कोई बर्छी चुभो रहा है। मेरा कहा–सुना माफ करना।’
रेणुका ने दौड़कर अमरकान्त से कहा–‘तुम यहाँ से जाओ भैया! देखकर वह और भी बेचैन होगी। किसी को भेज दो, लेडी डॉक्टर को बुला लाए। जी कड़ा करो, समझदार होकर रोते हो।’
सुखदा बोली–‘नहीं अम्माँ, उनसे कह दो ज़रा यहाँ बैठ जाएँ। मैं अब न बचूँगी। हाय भगवान्!’
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