उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
रेणुका ने अमर को डाँटकर कहा–‘मैं तुमसे कहती हूँ, यहाँ से चले जाओ, और तुम खड़े रो रहे हो। जाकर लेडी डॉक्टर को बुलवाओ।’
अमरकान्त रोता हुआ बाहर निकला और जनाने अस्पताल की ओर चला, पर रास्ते में भी रह-रहकर उसके कलेजे में हूक–सी उठती रही। सुखदा की वह वेदनामयी मूर्ति आँखों से सामने फिरती रही।
लेडी डॉक्टर मिस हूपर को अक्सर कुसमय बुलावे आते रहते थे। रात की उसकी फ़ीस दुगुनी थी। अमरकान्त डर रहा था कि कहीं बिगड़े न कि इतनी रात गये क्यों आये लेकिन मिस हूपर ने सहर्ष उसका स्वागत किया और मोटर लाने की आज्ञा देकर उससे बातें करने लगी।
‘यह पहला ही बच्चा है?’
‘जी हाँ।’
‘आप रोयें नहीं। घबड़ाने की कोई बात नहीं। पहली बार ज़्यादा दर्द होता है। औरत बहुत दुर्बल तो नहीं है?’
‘आजकल तो बहुत दुबली हो गयी है।’
‘आपको और पहले आना चाहिए था।’
अमर के प्राण सूख गये। वह क्या जानता था, आज ही यह आफत आने वाली है, नहीं कचहरी से सीधे घर आता।
मेम साहब ने फिर कहा–‘आप लोग अपनी लेडियों को कोई एक्सरसाइज़ नहीं करवाते। इसीलिए दर्द ज़्यादा होता है। अन्दर के स्नायु बँधे रह जाते हैं न!’
अमरकान्त ने सिसककर कहा–‘मैडम, अब तो आप ही की दया का भरोसा है।’
‘मैं तो चलती हूँ, लेकिन शायद सिविल सर्जन को बुलाना पड़े।’
अमर ने भयातुर होकर कहा–‘कहिए तो उनको लेता चलूँ।’
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