उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
मेम ने उसकी ओर दयाभाव से देखा–‘नहीं, अभी नहीं। पहले मुझे चलकर देख लेने दो।’
अमरकान्त को आश्वासन न हुआ। उसने भय-कातर स्वर में कहा–‘मैडम अगर सुखदा को कुछ हो गया, तो मैं भी मर जाऊँगा।’
मेम ने चिन्तित होकर पूछा–‘तो क्या हालत अच्छी नहीं है?’
‘दर्द बहुत हो रहा है।’
‘हालत तो अच्छी है?’
‘चेहरा पीला पड़ गया है, पसीना...’
‘हम पूछते हैं हालत कैसी है? उसका जी तो नहीं डूब रहा है? हाथ-पाँव तो ठण्डे नहीं हो गये हैं?’
मोटर तैयार हो गयी। मेम साहब ने कहा–‘तुम भी आकर बैठ जाओ। साइकिल कल हमारा आदमी दे आयेगा।’
अमर ने दीन आग्रह के साथ कहा–‘आप चलें, मैं ज़रा सिविल सर्जन के पास होता आऊं। बुलानाले पर लाला समरकान्त का मकान....’
‘हम जानते हैं।’
मेम साहब तो उधर चली, अमरकान्त सिविल सर्जन को बुलाने चला। ग्यारह बज गये थे। सड़कों पर भी सन्नाटा था। और पूरे तीन मील की मंजिल थी। सिविल सर्जन छावनी में रहता था। वहाँ पहुँचते-पहुँचते बारह का अमल को आया। सदर फाटक खुलवाने, फिर साहब को इत्तला कराने में एक घंटे से ज़्यादा लग गया। साहब उठे तो, पर जामे से बाहर।
गरजते हुए बोले–‘हम इस वक़्त नहीं जा सकता।’
अमर ने निश्शंक होकर कहा–‘आप अपनी फ़ीस ही तो लेंगे?’
‘हमारा रात का फ़ीस सौ रुपये है।’
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