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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘कोई हरज नहीं है।’

‘तुम फ़ीस लाया है?’

अमर ने डाँट बताई–‘आप हरेक से पेशग़ी फ़ीस नहीं लेते। लाला समरकान्त उन आदमियों में नहीं हैं जिन पर सौ रुपये का भी विश्वास न किया जा सके। वह इस शहर के सबसे बड़े साहूकार हैं। मैं उनका लड़का हूँ।’

साहब कुछ ठण्डे पड़े। अमर ने उनकी सारी कैफ़ियत सुनाई, तो चलने को तैयार हो गये। अमर ने साइकिल वहीं छोड़ी और साहब के साथ मोटर में जा बैठा। आधा घण्टे में मोटर बुलानाले जा पहुँची। अमरकान्त को कुछ दूर से ही शहनाई की आवाज सुनाई दी। बन्दूकें छूट रही थीं। उसका हृदय आनन्द से फूल उठा।

द्वार पर मोटर रुकी, तो लाला समरकान्त ने आकर डॉक्टर को सलाम किया और बोले–‘हुजूर के इकबाल से सब चैन-चान है। पोते ने जन्म लिया है।’

डॉक्टर और लेडी हूपर में कुछ बातें हुईं, तब डॉक्टर ने फ़ीस ली और चल दिए। उनके जाने के बाद लालाजी ने अमरकान्त को आड़े हाथों लिया–‘मुफ़्त में सौ रुपये चपत पड़ी।’ अमरकान्त ने झल्लाकर कहा–‘मुझसे रुपये ले लीजिएगा। आदमी से भूल हो ही जाती है। ऐसे अवसर पर मैं रुपये का मुँह नहीं देखता।’

किसी दूसरे अवसर पर अमरकान्त इस फटकार पर घण्टों बिसूरा करता, पर इस वक़्त उसका मन उत्साह और आनन्द में भरा हुआ था। भरे हुए गेंद पर ठोकरों का क्या असर? उसके जी में तो आ रहा था, इस वक़्त क्या लुटा दूँ। वह अब एक पुत्र का पिता है! अब कौन उससे हेकड़ी जता सकता है! वह नवजात शिशु जैसे स्वर्ग से उसके लिए आशा और अमरता का आशीर्वाद लेकर आया है। उसे देखकर अपनी आँखें शीतल करने के लिए वह विकल हो रहा था। ओहो! इन्हीं आँखों से वह उस देवता के दर्शन करेगा!

लेडी हूपर ने उसे प्रतीक्षा भरी आँखों से ताकते देखकर कहा–‘बाबूजी, आप यों बालक को नहीं देख सकेंगे। आपको बड़ा-सा इनाम देना पड़ेगा।’

अमर ने सम्पन्न नम्रता के साथ कहा–‘बालक तो आपका है। मैं तो केवल आपका सेवक हूँ। जच्चा की तबीयत कैसी है?’

‘बहुत अच्छी। अभी सो गयी हैं।’

‘बालक खूब स्वस्थ है?’

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