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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘हाँ अच्छा है। बहुत सुन्दर। गुलाब का पुतला-सा।’

यह कहकर सौरगृह में चली गयी। महिलाएँ तो गाने-बजाने में मगन थीं। मुहल्ले की पचासों स्त्रियाँ जमा हो गयीं थीं और उनका संयुक्त स्वर, जैसे एक रस्सी की भाँति स्थूल होकर अमर के गले को बाँध लेता था। उसी वक़्त लेडी हूपर ने बालक को गोद में लेकर उसे सौरगृह की तरफ़ आने का इशारा किया। अमर उमंग से भरा हुआ चला, पर सहसा उसका मन एक विचित्र भय से कातर हो उठा। वह आगे न बढ़ सका। वह पापी मन लिए हुए वरदान को कैसे ग्रहण कर सकेगा? वह इस वरदान के योग्य है ही कब? उसने इसके लिए कौन-सी तपस्या की है? यह ईश्वर की अपार दया है–जो उन्होंने यह विभूति उसे प्रदान की। तुम कैसे दयालु हो भगवान्!

श्यामल क्षितिज के गर्भ से निकलने वाली बाल-ज्योति की भाँति अमरकान्त को अपने अन्तःकरण की सारी क्षुद्रता, सारी कलुषता के भीतर से एक प्रकाश-सा निकलता हुआ जान पड़ा, जिसने उसके जीवन को रजत-शोभा प्रदान कर दी। दीपकों के प्रकाश में, संगीत के स्वरों में, गगन की तारिकाओं में उसी शिशु की छवि थी। उसी का माधुर्य था, उसी का नृत्य था।

सिल्लो आकर रोने लगी। अमर ने पूछा–‘तुझे क्या हुआ है? क्यों रोती है?’

सिल्लो बोली–‘मेम साहब ने मुझे भैया को नहीं देखने दिया, दुत्कार दिया। क्या मैं बच्चे को नज़र लगा देती? मैंने भी बच्चे पाले हैं। मैं जरा देख लेती तो क्या होता?’

अमर ने हँसकर कहा–‘तू कितनी पागल है सिल्लो! उसने इसलिए मना किया होगा कि कहीं बच्चे को हवा न लग जाए। इन अंग्रेज डॉक्टरिनियों के नखरे भी तो निराले होते हैं। समझती-समझाती नहीं, तरह-तरह के नखरे बखारती हैं, लेकिन उनका राज तो आज ही के दिन है न। फिर तो अकेली दाई रह जाएगी। तू ही तो बच्चे को पालेगी दूसरा कौन पालने वाला बैठा हुआ है।’

सिल्लो की आँसू-भरी आँखें मुस्करा पड़ीं। बोली–‘ मैंने दूर से देख लिया। बिलकुल तुमको पड़ा है। रंग बहूजी का है! मैं कण्ठी लूँगी, कहे देती हूँ।’

दो बज रहे थे। उसी वक़्त लाला समरकान्त ने अमर को बुलाया और बोले–‘नींद तो अब क्या आयेगी। बैठकर कल के उत्सव का एक तख़मीना बना लो। तुम्हारे जन्म में कोई कारबार फैला न था, नैना कन्या थी। पच्चीस वर्ष के बाद भगवान् ने यह दिन दिखाया है। कुछ लोग नाच-मुजरे का विरोध करते हैं। मुझे तो इसमें कोई हानि नहीं दीखती। ख़ुशी के यही अवसर हैं, चार-भाई बन्द, यार-दोस्त आते हैं, गाना-बजाना सुनते हैं, प्रीतिभोज में शरीक होते हैं। यह जीवन के सुख हैं। और इस संसार में क्या रखा है।’

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