उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
डॉक्टर शान्तिकुमार ने उपेक्षा भाव से कहा–‘मेरे पास इससे ज़्यादा जरूरी काम है।’
एक साहब ने पूछा–आख़िर आपको नाच से क्यों ऐतराज है?
डॉक्टर ने अनिच्छा से कहा–इसलिए कि आप और हम नाचना ऐब समझते हैं। नाचना विलास की वस्तु नहीं, भक्ति और आध्यात्मिक आनन्द की वस्तु है, पर हमने इसे लज्जास्पद बना रखा है। देवियों को विलास और भोग की वस्तु बनाना अपनी माताओं और बहनों का अपमान करना है। हम सत्य से इतनी दूर हो गये हैं कि उसका यथार्थ रूप भी हमें नहीं दिखाई देता। नृत्य जैसे पवित्र...’
सहसा एक युवक ने समीप आकर डॉक्टर साहब को प्रणाम किया। लम्बा दुबला-पतला आदमी था, मुख सूखा हुआ, उदास, कपड़े मैले और जीर्ण, बालों पर गर्द पड़ी हुई। उसकी गोद में एक साल-भर का हृष्ट-पुष्ट बालक था, बड़ा चंचल; लेकिन कुछ डरा हुआ।
डॉक्टर ने पूछा–‘कौन हो? मुझसे कुछ काम है?’
युवक ने इधर-उधर संशय भरी आँखों से देखा, मानो इन आदमियों के सामने वह अपने विषय में कुछ कहना नहीं चाहता, और बोला–‘मैं तो ठाकुर हूँ। यहाँ से छह-सात कोस पर एक गाँव है महुली, वहीं रहता हूँ।’
डॉक्टर साहब ने उसे तीव्र नेत्रों से देखा और समझ गये। बोले–‘अच्छा वही गाँव जो सड़क के पश्चिमी तरफ़ है। आओ मेरे साथ।’
डॉक्टर साहब उसे लिए हुए पास वाले बगीचे में चले गये और एक बेंच पर बैठकर उसकी ओर प्रश्न भरी निगाहों से देखा कि अब वह उसकी कथा सुनने को तैयार हैं। युवक ने सुकचाते हुए कहा– ‘इस मुकदमें में जो औरत है, वह इसी बालक की माँ है। घर में हम दो प्राणियों के सिवा और कोई नहीं है। मैं खेतीबारी करता हूँ। वह बाज़ार के कभी-कभी सौदा-सुलुफ़ लाने चली जाती थी। उस दिन गाँव वालों के साथ अपने लिए एक साड़ी लेने गयी थी। लौटती बेर वह वारदात हो गयी, गाँव के सभी आदमी छोड़ कर भाग गये। उस दिन से वह घर नहीं गयी। मैं कुछ नहीं जानता, कहाँ घूमती रही! मैंने भी उसकी खोज नहीं की। अच्छा ही हुआ कि वह उस समय घर नहीं गयी, नहीं हम दोनों में एक की या दोनों की जान जाती। इस बच्चे के लिए मुझे विशेष चिन्ता थी। बार-बार माँ को खोजता, पर मैं इसे बहलाता रहता। इसी की नींद सोता और इसी की नींद जागता। पहले तो मालूम होता था, बचेगा नहीं, लेकिन भगवान की दया थी। धीरे-धीरे माँ को भूल गया। पहले मैं इसका बाप था, अब तो माँ-बाप दोनों मैं ही हूँ। बाप कम हूँ, माँ ज़्यादा। मैंने मन में समझा था, वह कहीं डूब मरी होगी। गाँव के लोग कभी-कभी कहते–उसकी तरह की एक औरत छावनी की ओर है, पर मैं कभी उन पर विश्वास न करता।’
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