उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘मेरे सामने तो नहीं रोया।’
‘अब तो चाहे चलने लगा हो?’
‘गोद में था, पर ऐसा मालूम होता था कि चलता होगा।’
‘अच्छा, उसके बाप की क्या हालत थी? बहुत दुबले हो गये हैं?’
‘मैंने उन्हें पहले कब देखा था? हाँ, दुःखी जरूर थे।
यहीं कहीं होंगे, कहो तो तलाश करूँ। शायद खुद आते हों।’
मुन्नी ने एक क्षण के बाद सजल नेत्र होकर कहा– ‘उन दोनों को मेरे पास न आने दीजिएगा, बाबूजी। मैं आपके पैरों पड़ती हूँ। इन आदमियों से कह दीजिए अपने-अपने घर जाएँ। मुझे आप स्टेशन पहुँचा दीजिए। मैं आज ही यहाँ से चली जाऊँगी। पति और पुत्र के मोह में पड़कर उनका सर्वनाश न करूँगी। मेरा यह सम्मान देखकर पतिदेव मुझे ले जाने पर तैयार हो गये, पर उनके मन में क्या है, यह मैं जानती हूँ। वह मेरे साथ रहकर सन्तुष्ट नहीं रह सकते मैं अब इसी योग्य हूँ किसी ऐसी जगह चली जाऊँ, जहाँ मुझे कोई न जानता हो। वहीं मजूरी करके या भिक्षा माँगकर अपना पेट पालूँगी।’
वह एक क्षण चुप रही। शायद देखती थी कि डॉक्टर क्या जवाब देते हैं। जब डॉक्टर साहब कुछ न बोले तो उसने ऊँचे, पर काँपतें हुए स्वर में लोगों से कहाँ– ‘बहनों और भाइयों! आपने मेरा जो सत्कार किया है, उसके लिए आपकी कहाँ तक बड़ाई करूँ। आपने एक अभागिन को तार दिया। अब मुझे जाने दीजिए। मेरा जुलूस निकालने के लिए हठ न कीजिए। मैं इसी योग्य हूँ कि अपना काला मुँह छिपाए किसी कोने में पड़ी रहूँ। इस योग्य नहीं हूँ कि मेरी दुर्गति का महात्म्य किया जाए।’
जनता ने बहुत शोरगुल मचाया। डीलरों ने समझाया, देवियों ने आग्रह किया, पर मुन्नी जुलूस पर राजी न हुई और बराबर यही कहती रही कि मुझे स्टेशन पर पहुँचा दो। आख़िर मजबूर होकर डॉक्टर साहब ने जनता को विदा किया और मुन्नी को मोटर पर बैठाया।
मुन्नी ने कहा–‘अब यहाँ से चलिए और किसी दूर के स्टेशन पर ले चलिए, जहाँ यह लोग एक भी न हों।’
शान्तिकुमार ने इधर-उधर प्रतीक्षा की आँखों से देखकर कहा–‘इतनी जल्दी न करो बहन, तुम्हारा पति आता ही होगा। जब यह लोग चले जायेंगे, तब वह जरूर आयेगा।’
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