उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
शान्तिकुमार इस आत्म-दमन पर चकित होकर बोले– ‘यह कैसे हो सकता है बहन...इतने स्त्री-पुरुष जमा हैं, इनकी भक्ति और प्रेम का तो विचार कीजिए। आप जुलूस में न जायेंगी, तो इन्हें कितनी निराशा होगी। मैं तो समझता हूँ कि यह लोग आपको छोड़कर कभी न जायेंगे।’
‘आप लोग मेरा स्वाँग बना रहे हैं।’
‘ऐसा न कहो बहन। तुम्हारा सम्मान करके हम अपना सम्मान कर रहे हैं। और तुम्हें हरद्वार जाने की ज़रूरत क्या है? तुम्हारा पति तुम्हें अपने साथ ले जाने के लिए आया हुआ है।’
मुन्नी ने आश्चर्य से डॉक्टर की ओर देखा-‘मेरा पति! मुझे अपने साथ ले जाने के लिए आया हुआ है? आपने कैसे जाना?
‘मुझसे थोड़ी देर पहले मिला था।’
‘क्या कहता था?’
‘यही कि मैं उसे अपने साथ ले जाऊँगा और उसे अपने घर की देवी समझूँगा।’
‘उसके साथ कोई बालक भी था?’
‘हाँ, तुम्हारा छोटा बच्चा उसकी गोद में था।’
‘बालक बहुत दुबला हो गया होगा?’
‘नहीं, मुझे वह हृष्ट-पुष्ट दीखता था।’
‘प्रसन्न भी था?’
‘हाँ, खूब हँस रहा था।’
‘अम्माँ-अम्माँ तो न करता होगा?’
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