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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सहसा जज साहब ने एक उड़ती हुई निगाह से जनता को देखा। चारों तरफ़ सन्नाटा हो गया। असंख्य आँखें, जज साहब की ओर ताकने लगीं, मानो कर रही थीं– ‘आप ही हमारे भाग्य के विधाता हैं।

जज साहब ने सन्दूक से टाइप किया हुआ फैसला निकाला और एक बार खाँसकर उसे पढ़ने लगे। जनता सिमटकर और समीप आ गयी। अधिकांश लोग फैसले का एक शब्द भी न समझते थे, पर कान सभी लगाए हुए थे। चावल और बताशों के साथ न जाने कब रुपये भी लूट में मिल जाएँ।

कोई पन्द्रह मिनट तक जज साहब फै़सला पढ़ते रहे और जनता चिंतामय प्रतीक्षा से तन्मय होकर सुनती रही।

अन्त में जज साहब के मुख से निकला– ‘यह सिद्ध है कि मुन्नी ने हत्या की...

कितनों ही के दिल बैठ गये। एक-दूसरे की ओर पराधीन नेत्रों से देखने लगे।

जज ने वाक्य की पूर्ति की– ‘लेकिन यह भी सिद्ध है कि उसने यह हत्या मानसिक अस्थिरता की दशा में की–इसलिए मैं उसे मुक्त करता हूँ।’

वाक्य का अन्तिम शब्द की उस तूफानी उमंग में डूब गया। आनन्द, महीनों चिन्ता के बन्धनों में पड़े रहने के बाद आज जो छूटा, तो छूटे हुए बछड़े की भाँति कुलाँचें मारने लगा। लोग मतवाले हो-होकर एक-दूसरे के गले मिलने लगे। घनिष्ठ मित्रों में धौल-धप्पा होने लगा। कुछ लोगों ने अपनी-अपनी टोपियाँ उछालीं। जो मसखरे थे, उन्हें जूते उछालने की सूझी। सहसा मुन्नी, डॉक्टर शान्तिकुमार के साथ, गम्भीर हास्य से अलंकृत, बाहर निकली, मानो कोई रानी अपने मन्त्री के साथ आ रही है। जनता की वह सारी उद्दण्डता शान्त हो गयी। रानी के सम्मुख बेअदबी कौन कर सकता है!

प्रोग्राम पहले ही निश्चित था। पुष्प वर्षा के पश्चात मुन्नी के गले में जयमाल डालना था। यह गौरव जज साहब की धर्मपत्नी को प्राप्त हुआ, जो इस फैसले के बाद जनता की श्रृद्धा-पात्री हो चुकी थीं। फिर बैण्ड बजने लगा। सेवा-समिति के दो सौ युवक केसरिये बाने पहने जुलूस के साथ चलने के लिए तैयार थे। राष्ट्रीय सभा के सेवक भी ख़ाकी वर्दियाँ पहने झण्डियाँ लिए जमा हो गये। महिलाओं की संख्या एक हज़ार से कम न थी। निश्चत किया गया था कि जुलूस गंगा-तट तक जाए, वहाँ एक विराट सभा हो, मुन्नी को एक थैली भेंट की जाए और सभा भंग हो जाए।

मुन्नी कुछ देर तक तो शान्त भाव से यह समारोह देखती रही, फिर शान्तिकुमार से बोली–‘बाबूजी, आप लोगों ने मेरा जितना सम्मान किया, मैं उसके जोग नहीं थी, अब मेरी आपसे यह विनती हैं कि मुझे हरद्वार या किसी दूसरे तीर्थ-स्थान में भेज दीजिए। वहीं भिक्षा माँगकर यात्रियों की सेवा करके दिन काटूँगी। यह जुलूस और यह धूमधाम मुझ जैसी अभागिन के लिए शोभा नहीं देता। इन सभी भाई-बहनों से कह दीजिए, अपने-अपने घर जाएँ। मैं धूल में पड़ी हुई थी। आप लोगों ने मुझे आकाश पर चढ़ा दिया। अब उससे ऊपर जाने की मुझमें सामर्थ्य नहीं है मेरे सिर में चक्कर आ जायेगा। मुझे यहीं से स्टेशन भेज दीजिए। आपके पैरों पड़ती हूँ।’

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