उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मज़दूर–हमारी फाँसी तो हो ही जायेगी। तुम माफ़ी तो न दिला सकोगे।
मिस्टर जिम–हम किसी को सज़ा न देंगे।
मिस्टर सिम–हम सबको इनाम दिलाएगा।
चक्रधर–इनाम मिले या फाँसी, इसकी क्या परवाह। अभी तक तुम्हारा दामन खून के छीटों से पाक है; उसे पाक रखो। ईश्वर की निग़ाह में तुम निर्दोष हो। अब अपने को कलंकित मत करो, जाओ।
मज़दूर–अपने भाइयों का खून कभी हमारे सिर से न उतरेगा; लेकिन तुम्हारी यही मर्ज़ी है, तो लौट जाते हैं। आखिर फाँसी पर तो चढ़ना ही है।
चक्रधर कुन्दे की चोट से कुछ देर अचेत पड़े रहे थे। जब होश आया, तो देखा कि दाहिनी ओर हड़तालियों का एक दल अंग्रेज़ी कैम्प के द्वार पर खड़ा है, बायीं ओर बाज़ार लुट रहा है और सशस्त्र पुलिस के सिपाही हड़तिलायों के साथ मिले हुए दूकानें लूट रहे हैं और विशाल तिलक-मण्डप से अग्नि की ज्वाला निकल उठ रही है। वह उठे और अंग्रेज़ी कैम्प की ओर भागे। वहीं उनके पहुँचने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। बाज़ार में रक्तपात का भय न था। रक्षक स्वयं लुटेरे बने हुए थे। उन्हें लूट से कहाँ फ़ुरसत थी कि हड़तालियों का शिकार करते? अंगेज़ी कैम्प में ही स्थिति सबसे भयावह थी। इस नाजुक मौके पर वह न पहुँच जाते, तो किसी अंग्रेज़ की जान न बचती, सारा कैम्प लुट जाता और खेमे राख के ढेर हो जाते। हड़तालियों की रक्षा करनी तो उन्हें बदी न थी; लेकिन विदेशियों को उन्होंने मौत के मुँह से निकाल लिया। एक क्षण में सारा कैम्प साफ़ हो गया। एक भी मज़दूर न रह गया।
इन आदमियों के जाते ही वे लोग भी इनके साथ हो लिए; जो पहले लूट के लालच से चले आए थे। जिस तरह पानी आ जाने से कोई मेला उठ जाता है, ग्राहक, दूकानदार और दूकानें–सब न जाने कहाँ लुप्त हो जाती हैं, उसी भाँति एक क्षण में सारे कैम्प में सन्नाटा छा गया। केवल तिलक-मण्डप से अभी तक आग की ज्वाला निकल रही थी। राजा साहब और उनके साथ कुछ गिने-गिनाए आदमी उसके सामने चुपचाप खड़े मानो किसी मृतक की दाह-क्रिया कर रहे हों। बाज़ार लुटा, गोलियाँ चलीं, आदमी मक्खियों की तरह मारे गए; पर राजा मण्डप के सामने ही खड़े रहे। उन्हें अपनी सारी मनोकामनाएँ, अग्नि-राशि में भस्म होती हुई मालूम होती थीं।
अँधेरा छा गया था। घायलों के कराहने की आवाज़ें आ रही थीं। चक्रधर और उनके साथ एक युवक उन्हें सावधानी से उठा-उठाकर एक वृक्ष के नीचे ज़मा कर रहे थे। कई आदमी तो उठाते-ही-उठाते सुर-लोक सिधारे। कुछ सैनिक उन्हें ले जाने की फ़िक्र करने लगे। कुछ लोग शेष घायलों की देख-भाल में लगे। रियासत का डॉक्टर सज्जन मनुष्य था। यहाँ से सन्देश जाते ही आ पहुँचा। उसकी सहायता से बड़ा काम किया। आकाश पर काली घटा छायी हुई थी। चारों तरफ़ अँधेरा था। तिलक-मण्डप की आग भी बुझ चुकी थी। उस अन्धकार में ये लोग लालटेन लिये घायलों को अस्पताल ले जा रहे थे।
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