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कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....

प्रेमचंद के उपन्यास कायाकल्प में चिन्तनीय पारलौकिक तत्त्व उभरे हैं। उपन्यास में राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प प्रस्तुत किया गया है। राजकुमार पर्वतों में रहते हैं, योगाभ्यास करते हैं और ऐसे वायुयानों का आविष्कार करते हैं, जो इच्छानुसार उड़ते हैं, और भूमि पर उतरते हैं। ऐसे काल्पनिक कथानक को पूर्वजन्म के द्वारा प्रेमचंद ने इस तरह मोड़ा है कि सामाजिक और मानवीय तत्त्वों के गम्भीर अध्येता के लिए यह कृति प्रचुर सामग्री प्रस्तुत करती है।

‘कायाकल्प के काल-चक्र में आगरा में साम्प्रदायिक दंगे प्रारम्भ होते हैं।’ गांधीवादी विचारधारा का प्रयोग करके चक्रधर उपद्रव शान्त करता है। ग्राम जगत में जमींदार के शोषण का प्राधान्य है। जनता इसके विरोध में उठ खड़ी होती है। इन्हीं सूत्रों के साथ मुंशी वज्रधर और उनके परिवार की रोचक कथा भी लिपटी हुई है। पुराने दरबारी वज्रधर का जीवन चाटुकारिता का मूर्तमन्त रूप है। नेता बन जाने पर भी चक्रधर न जाने क्यों वैराग्य ले लेता है।

इस उपन्यास की केन्द्रीय समस्या पृथ्वी पर न्याय की खोज है। उपन्यास में यत्र-तत्र ऐसे विचार सहज प्राप्त हैं...ईश्वर ने ऐसी सृष्टि की रचना ही क्यों की, जहां इतना स्वार्थ, द्वेष और अन्याय है? क्या ऐसी पृथ्वी नहीं बन सकती थी जहां सभी मनुष्य, सभी जातियां प्रेम और आनन्द के साथ संसार में रहतीं? वह कौन सा इंसाफ है कि कोई तो दुनिया में मजे उड़ाए, और कोई धक्के खाए?

कायाकल्प

दोपहर का समय था; चारों तरफ़ अँधेरा था। आकाश में तारे छिटके हुए थे। ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था, मानो संसार से जीवन का लोप हो गया हो। हवा भी बन्द हो गई थी। सूर्य-ग्रहण लगा हुआ था। त्रिवेणी के घाट पर यात्रियों की ऐसी भीड़ थी, जिसकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती। वे सभी हिन्दू, जिनके दिल में श्रद्धा और धर्म का अनुराग था, भारत के हर एक प्रान्त से इस महान अवसर पर त्रिवेणी की पावन धारा में अपने पापों का विसर्जन करने के लिए आ पहुँचे थे, मानो उस अँधेरे में भक्ति और विश्वास ने अधर्म पर छापा मारने के लिए अपनी असंख्य सेना सजाई हो। लोग इतने उत्साह से त्रिवेणी के सँकरे घाट की ओर गिरते-पड़ते लपके चले जाते थे कि यदि जल की शीतल धारा की जगह अग्नि का जलता हुआ कुण्ड होता, तो भी लोग उसमें कूदते हुए ज़रा भी न झिझकते!

कितने आदमी कुचले गए, कितने डूब गए, कितने खो गए, कितने अपंग हो गए, इसका अनुमान करना कठिन है। धर्म का विकट संग्राम था। एक तो सूर्य-ग्रहण, उस पर यह असाधारण अद्भुत प्राकृतिक छटा! सारा दृश्य धार्मिक वृत्तियों को जगानेवाला था। दोपहर को तारों का प्रकाश माया के परदे को फाड़कर आत्मा को आलोकित करता हुआ मालूम होता था। वैज्ञानिकों की बात जाने दीजिए, पर जनता में न जाने कितने दिनों से वह विश्वास फैला हुआ था कि तारागण दिन को कहीं किसी सागर में डूब जाते हैं। आज वही तारागण आँखों के सामने चमक रहे थे, फिर भक्ति क्यों न जाग उठे! सद्वृत्तियाँ क्यों न आँखें खोल दें!

घण्टे भर के बाद फिर प्रकाश होने लगा, तारागण फिर अदृश्य हो गए, सूर्य भगवान की समाधि टूटने लगी।

यात्रीगण अपने-अपने पापों की गठरियाँ त्रिवेणी में डालकर जाने लगे। संध्या होते-होते घाट पर सन्नाटा छा गया। हाँ, कुछ घायल, कुछ अधमरे प्राणी जहाँ-तहाँ पड़े कराह रहे थे और ऊँचे कगार से कुछ दूर पर एक नाली में पड़ी तीन-चार साल की एक लड़की चिल्ला-चिल्लाकर रो रही थी।

सेवा समितियों के युवक, जो अब तक भीड़ सँभालने का विफल प्रयत्न कर रहे थे, अब डोलियाँ कंधों पर ले-लेकर घायलों और भूले भटकों की खबर लेने आ पहुँचे। सेवा और दया का कितना अनुपम दृश्य था।

सहसा एक युवक के कानों में उस बालिका के रोने की आवाज़ पड़ी। अपने साथी से बोला–यशोदा, उधर कोई लड़का रो रहा है।

यशोदा०–हाँ, मालूम तो होता है। इन मूर्खों को कोई कैसे समझाए कि यहाँ बच्चों को लाने का काम नहीं। चलो, देखें।

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