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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर पिता का अदब करते थे, उनको जवाब तो न देते; पर अपना जीवन सार्थक बनाने के लिए उन्होंने जो मार्ग तय कर लिया था, उससे वह न हटते थे। उन्हें यह हास्यास्पद मालूम होता था कि आदमी केवल पेट पालने के लिए आधी उम्र पढ़ने में लगा दे। अगर पेट पालना ही जीवन का आदर्श हो, तो पढ़ने की ज़रूरत ही क्या है। मज़दूर एक अक्षर भी नहीं जानता, फिर भी वह अपना और अपने बाल-बच्चों का पेट बड़े मजे से पाल लेता है। विद्या के साथ जीवन का आदर्श कुछ ऊँचा न हुआ, तो पढ़ना व्यर्थ है। विद्या को साधन बनाते उन्हें लज्जा आती थी। वह भूखों मर जाते; लेकिन नौकरी के लिए आवेदन-पत्र लेकर कहीं न जाते। विद्याभ्यास के दिनों में भी वह सेवाकार्य में अग्रसर रहा करते थे और अब तो इसके सिवा उन्हें और कुछ सूझता ही न था। दोनों की सेवा और सहायता में जो आनन्द और आत्मगौरव था, वह दफ़्तर में बैठकर कलम घिसने में कहाँ?

इस प्रकार दो साल गुज़र गए। मुंशी वज्रधर ने समझा था, जब यह भूत इसके सिर से उतर जाएगा, शादी-ब्याह की फ़िक्र होगी, तो आप-ही-आप नौकरी की तलाश में दौड़ेगा। जवानी का नशा बहुत दिनों तक नहीं ठहरता। लेकिन जब दो साल गुज़र जाने पर भी भूत के उतरने का कोई लक्षण न दिखाई दिया, तो एक दिन उन्होंने चक्रधर को खूब फटकारा–दुनिया का दस्तूर है कि पहले घर में दिया जलाकर तब मस्जिद में जलाते हैं। तुम अपने घर को अँधेरा रखकर मस्जिद को रोशन करना चाहते हो। जो मनुष्य अपनों का पालन न कर सका, वह दूसरों की किस मुँह से मदद करेगा! मैं बुढ़ापे में खाने-कपड़े को तरसूँ और तुम दूसरों का कल्याण करते फिरो। मैंने तुम्हें पैदा किया, दूसरों ने नहीं; मैंने तुम्हें पाला-पोसा दूसरों ने नहीं; मैं गोद में लेकर हकीम-वैद्यों के द्वार-द्वार दौड़ता फिरा, दूसरे नहीं। तुम पर सबसे ज़्यादा हक़ मेरा है, दूसरों का नहीं।

चक्रधर अब पिता की इच्छा से मुँह न मोड़ सके। उन्हें अपने कॉलेज ही में कोई जगह मिल सकती थी। वहाँ सभी उनका आदर करते थे; लेकिन यह उन्हें मंजूर न था। वह कोई ऐसा धन्धा चाहते थे, जिससे थोड़ी देर रोज़ काम करके अपने पिता की मदद कर सकें। एक घण्टे से अधिक समय नहीं देना चाहते थे। संयोग से जगदीशपुर के दीवान ठाकुर हरिसेवकसिंह को अपनी लड़की को पढ़ाने के लिए सुयोग्य और सच्चरित्र अध्यापक की ज़रूरत पड़ी। उन्होंने कॉलेज के प्रधानाध्यापक को इस विषय में एक पत्र लिखा। ३० रु. मासिक तक वेतन रक्खा। कॉलेज का कोई अध्यापक इतने वेतन पर राज़ी न हुआ। आखिर उन्होंने चक्रधर को उस काम पर लगा दिया। काम बड़ी ज़िम्मेदारी का था; किन्तु चक्रधर इतने सुशील, इतने गम्भीर और इतने संयमी थे कि उन पर सबको विश्वास था।

दूसरे दिन से चक्रधर ने लड़की को पढ़ाना शुरू कर दिया।

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