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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


चक्रधर मिठाइयां खाने लगे। इतने में महरी ने आकर कहा– बड़ी बहूजी, मेरे लाला को रात सें खांसी आ रही है। कोई दवाई दे दो।

वागीश्वरी दवा देने चली गयी। अहल्या अकेली रह गयी, तो चक्रधर ने उसकी ओर देखकर कहा– आपको मेरे कारण बड़ा कष्ट हुआ। मैं तो इस उपहार के योग्य न था।

अहल्या– यह उपहार नहीं, भक्त की भेंट है।

वागीश्वरी ने आकर मुस्कुराते हुए कहा– भैया, तुमने तो आधी भी मिठाइयां नहीं खायी। क्या इसे देखकर भूख-प्यास बन्द हो गयी? यह मोहनी है, जरा इससे सचेत रहना।

अहल्या– अम्माँ तुम छोटे-बड़े किसी का लिहाज नहीं करती!

चक्रधर यहां कोई घण्टे-भर तक बैठे रहे। वागीश्वरी ने उनके घर का सारा वृतान्त पूछा-कै भाई हैं, कै बहिनें, पिताजी क्या करते हैं, बहनों का विवाह हुआ या नहीं? चक्रधर को उसके व्यवहार में इतना मातृ-स्नेह भरा मालूम होता था, मानों उससे पुराना परिचय है। चार बजते-बजते ख्वाजा महमूद के आने की खबर पाकर चक्रधर बाहर चले आये। और भी कितने ही आदमी मिलने आये थे। शाम तक उन लोगों से बातें होती रहीं। निश्चय हुआ कि एक पंचायत बनायी जाय और आपस के झगड़े उसी के द्वारा तय हुआ करें। चक्रधर को भी लोगो ने उस पंचायत का एक मेम्बर बनाया। रात को जब अहल्या और वागीश्वरी छत पर लेटीं, तो वागीश्वरी ने पूछा-अहल्या सो गयी क्या?

अहल्या– नहीं अम्माँ, जाग तो रही हूँ।

वागीश्वरी– हां, आज तुझे क्यों नींद आयेगी! इनसे ब्याह करेगी? तुम्हारे बाबूजी तुमसे मिलाने ही के लिए इन्हें काशी से लाये हैं। इनके पास और कुछ हो या न हो, हृदय अवश्य है। और ऐसा हृदय, जो बहुत कम लोगों के हिस्से में आता है। ऐसा स्वामी पाकर तुम्हारा जीवन सफल हो जायगा।

अहल्या ने डबडबायी हुई आंखों से वागीश्वरी को देखा, पर मुंह से कुछ न बोली। कृतज्ञता शब्दों में आकर शिष्टाचार का रूप धारण कर लेती है! उसका मौलिक रूप वही है, जो आंखों से बाहर निकलते हुए कांपता और लजाता है।

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