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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।

मुंशी वज्रधर उन रेल के मुसाफिरो में थे, जो पहले तो गाड़ी में खड़े होने की जगह मांगते हैं, फिर बैठने की फिक्र करने लगते हैं और अन्त में सोने की तैयारी कर देते हैं। चक्रधर एक बड़ी रिसायत के दीवान की लड़की को पढ़ायें और वह इस स्वर्ग-संयोग से लाभ न उठायें! यह क्योंकर हो सकता था। दीवान साहब को सलाम करने आने-जाने लगे। बातें करने में तो निपुण थे ही, दो-ही चार मुलाकातों में उनका सिक्का जम गया। इस परिचय ने शीघ्र ही मित्रता का रूप धारण किया। एक दिन दीवान साहब के साथ वह रानी जगदीशपुर के दरबार में जा पहुँचे और ऐसी लच्छेदार बातें की, अपनी तहसीलदारी की ऐसी जीट उड़ायी कि रानीजी मुग्ध हो गयीं! सोचा-इस आदमी को रख लूं, तो इलाके की आमदनी बढ़ जाय। ठाकुर साहब से सलाह की। यहां तो पहले ही से सारी बातें सधी-बधी थीं। ठाकुर साहब ने रंग और भी चोखा कर दिया। दूसरी ही सलामी में मुंशीजी को २५रु. मालिक की तहसीलदारी मिल गयी। मुंह-मांगी मुराद पुरी हुई। सवारी के लिए घोड़ा भी मिल गया। सोने में सुहागा हो गया।

अब मुंशीजी की पांचों अंगुली घी में थीं! जहां महीने में एक बार भी महफिल न जमने पाती थी, वहाँ अब तीसों दिन जमघट होने लगा। इतने बड़े अहलकार के लिए शराब की क्या कमी। कभी इलाके पर चुपके से दस-बीस बोतलें खिंचला लेते, कभी शहर के किसी कलवार पर धौंस जमाकर दो-चार बोतल ऐंठ लेते। बिना हर्र-फिटकरी रंग खोचा हो जाता था। एक कहार भी नौकर रख लिया और ठाकुर साहब के घर से दो-चार कुर्सियाँ उठवा लाये। उनके हौसले बहुत ऊंचे न थे, केवल एक भले आदमी की भांति जीवन व्यतीत करना चाहते थे। इस नौकरी ने उनके हौसले को बहुत-कुछ पूरा कर दिया, लेकिन यह जानते थे कि इस नौकरी का कोई ठिकाना नहीं। रईसों का मिजाज एक-सा नहीं रहता। मान लिया रानी साहबा के साथ निभ ही गयी तो कै दिन। राजा साहब आते ही पुराने नौकारों को निकाल बाहर करेंगे। जब दीवान साहब ही न रहेंगे, तो मेरी क्या हस्ती! इसलिए उन्होंने पहले ही से नये राजा साहब के यहां आना-जाना शुरू कर दिया था। इनका नाम ठाकुर विशालसिंह था रानी साहबा के चचेरे-देवर होते थे। उनके दादा दो भाई थे। बड़े भाई रियासत के मालिक थे। उन्हीं के वंशजों ने दो पीढ़ियों तक राज्य का आनन्द भोगा था। अब रानी के निस्सन्तान होने के कारण विशालसिंह के भाग्य उदय हुए थे। दो-चार गाँव जो उनके दादा को गुजारे के दिए मिले थे, उन्हीं को रेहन-बय करके इन लोगों ने ५॰ वर्ष काट दिये थे-यहां तक कि विशालसिंह के पास इतनी भी सम्पति न थी कि गुजर-बसर के लिए काफी होती। उस पर कुल मर्यादा का पालन करना आवश्यक था। महारानी के पट्टीदार थे और इस हैसियत का निर्वाह करने के लिए उन्हें नौकर-चाकर घोड़ा-गाड़ी सभी कुछ रखना पड़ता था। अभी तक परम्परा की नकल होती चली आती थी। दशहरे के दिन उत्सव जरूर मनाया जाता, जन्माष्टमी के दिन जरूर धूमधाम होती।

प्रातःकाल था, माघ की ठंड पड़ रही थी। मुंशीजी ने गरम पानी से स्नान किया, कपड़े पहने बाहर घोड़ा तैयार था, उस पर बैठे और शिवपुर चले।

जब वह ठाकुर साहब के मकान पर पहुंचे तो ठाकुर साहब धूप में बैठे एक पत्र पढ़ रहे थे।

मुंशीजी ने मोढ़े पर बैठते हुए कहा– सब कुशल आनन्द है न?

ठाकुर– जी हां, ईश्वर की दया है। कहिए, दरबार के क्या समाचार हैं?

मुंशीजी ने मुस्कराकर कहा– सब वही पुरानी बातें है। डॉक्टकों के पौ बाहर हैं दिन में तीन-तीन डॉक्टर आते हैं। रोज जगदीशपुर से १६ कहार पालकी उठाने के लिए बेगार पकड़कर आते हैं। वैद्यजी को लाना और ले जाना उनका काम है।

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